पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/१२०

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प्रतीक स्त्री को प्रतीक अथवा प्रेम का पालंबन माना। औरों की बात जाने दीजिए, सादी सा सदाचार का प्रतिपादक कवि भी 'अमरद' को ही अपनी कविता का प्रतीक बनाता और प्रियतम का विरह जगाता है। इस प्रतीक के संबंध में मौलाना शिबली का कथन है- "इंसान की असली फितरत के मुताबिक भर्द आशिक और औरत माशूक है लेकिन ईरान की यह उपज कि पाशिक और . माशक दोनों मर्द सख़्त तअज्जुब अंगेज है |और इंसाफ़ यह है कि इस बेहूदगी ने ईरान की आशिकाना शाइरी को जो तमाम दुनिया से बालातर और लतीफ़तर थी खाक में मिला दिया। "तीसरी सदी में इबतदा हुई और चौथी में यह मजाक श्राम हो गया। हर वक्त के मेल-जोल में नजरबाजी ताजा होती रहती थी। रफ़्ता रमता वह (तुर्क गुलाम ) गुलाम और खादिम होने के बजाय महबूब और मंजूर बन गए । "तुर्क के मानी माशूक के हो गए । “यह मजाक इस कदर श्राम हुआ कि सलातीन आलानिया अमरदपरस्ती करते थे। शुअरा तारीफ़ की तालीम दें और फ़रमाएं कि इश्क मजाजी इश्क हकीकी का जीना है तो मुल्क के मुल्क का बलाय आम में मुन्तला होना यकीनी था और हुआ। इस मौका पर यह नुस्ता खास लेहाज़ के काबिल है कि हिन्दुस्तान की शाइरी इस दाग से पाक रही।"तुर्क बच्चों के बाद मगबच्चे और ईरानी माशूक बने ।"'माशूक का सरापा तमाम चमनज़ार है । " स्नानकाहों में इस जिंस की और ज़्यादा माँग हुई। उक्त मौलाना महोदय के इस कथन में सबसे बड़ी अड्चन यह है कि हम देख चुके हैं कि अमरदपरम्ती शामी जातियों की एक पुरानी लत है । देवमन्दिरों में न जाने कितने प्रणयी अमरद उल्लास में रत थे। उनका अल्लाह भी पुरुषविध था । और अन्तिम रसूल को उसने किशोर के रूप में दर्शन भी दे दिया था। निदान मानना पड़ता है कि सूफियों कि अमरदपरस्ती परंपरागत है कुछ ईरान की उपज नहीं। तो भी यह कहने में हमें तनिक भी संकोच नहीं होता कि सूफियों (१) शेरुल अजम जिल्द चहारुम ५० १८६-२२४ ।