पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/१२६

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प्रतीक और चमन को सूफियों ने प्रतीक के रूप में पकड़ा और उन्हें अपने काव्य का अंग बना लिया। इसी प्रकार मीन तड़प तड़प कर जब जल के लिये जान देने लगता है और बाँसुरी कलप-कलप जब विरह में राग भरने लगती है तब सूफियों का रसिक हृदय भी दरक उठता है और उसको उस धरोहर का भान होता है जो प्रेम के रूप में उनके हृदय में विराजमान है और जिसके उद्बोधन के लिये ही सृष्टि- शिरोमणि मानव की रचना हुई है। बुलबुल, तोता, मछली और बाँसुरी तक ही प्रतीकों की सीमा नहीं । सूफियों को कण कण में विरह-व्यथा प्रतीत होती है । उनके लिये सभी कुछ प्रतीक है। सभी तो प्रियतम के प्रेम में निमग्न हो उसी की खोज में भाँवरें भर रहे हैं ? फिर उसकी इति कहाँ ? सूफियों के अति सामान्य प्रतीकों के ब्योरे से कोई लाभ नहीं। देखना तो हमें यह चाहिए कि सूफी उनका उपयोग कैसे करते हैं। अच्छा तो काव्य में प्रतीकों के आधार पर अन्योक्ति का विधान होता है। सामान्य उक्ति अथवा साधारण व्याख्यानों में हमारे भावों को इतना अवकाश नहीं मिलता कि उनका सहज विकास हो और उनका व्यापार निजी रूप में बढ़। उनमें तो उनपर एक प्रकार का बोझ-सा लाद दिया जाता है जिसको उन्हें ढोना ही पड़ता है। उससे उनका कोई अनुराग नहीं रहता 1 परन्तु अन्योक्ति में यह बात नहीं होती। उसमें तो उन भावा को झलका भर दिया जाता है जो हमें इष्ट होते हैं। तो बस, अप्रस्तुत का प्रस्तुत से जितना ही अधिक लगाव होगा अन्योक्ति का विधान भी उतना ही सुन्दर और सुगम होगा । जो बातें प्रतिदिन हमारे सामने आती रहती हैं, जिनका संस्कार हमारे मन में बना होता है, जिनकी स्मृति वासना के रूप में हममें पड़ी होती है, उनके उल्लेख मात्र से हमारी मनोवृत्तियों जाग उठती है और अपने स्वभाव के अनुकूल उनसे भाव ग्रहण कर लेती हैं। उन पर किसी प्रकार का बाहरी दबाव नहीं पड़ता। अपितु वासना और संस्कार ही उनको उभार कर भाव ग्रहण के योग्य बना देते हैं। अस्तु, अन्योक्ति में भावभंगियों का विधान और अप्रस्तुत का संकेत भर रहता है, किसी बात का प्रत्यक्ष वा कठोर अाग्रह नहीं । फलतः सूफी इन्हीं भावभंगियों और इन्हीं संकेतों के आधार पर, अन्योक्ति के द्वारा उस प्रियतम,