पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/१३२

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७. भावना सूफियों की भक्ति-भावना मादन-भाव की होती है । मादन-भाव यद्यपि देखने । एक नवीन भाव प्रतीत होता है तथापि उसका प्रयोग सर्वथा अर्वाचीन नहीं। भार के प्राचीन तंत्र-साहित्य के उस विभाग में उसका उपयोग दिखाई देता है जो नान प्रकार के उल्लासों से भरा पड़ा है। मादन भाव की उद्भावना भारत में किर प्रकार हुई, इसपर विचार करने का यह अवसर नहीं । यहाँ तो केवल इतना निवेदन कर देना है कि मादन-भाव का उल्लेख भारतीय भक्ति-भावना में कहीं नहीं किय जाता । सर्वत्र उसकी जगह माधुर्य भाव ही का प्रयोग पाया जाता है। माधुर्थ भार क्या सभी भक्ति-भावों के विषय में हमारा कहना है कि भक्ति-भावों में जो 'भाव का अर्थ लिया जाता है वह रति-भाव के 'भाव' के अर्थ से सर्वथा भिन्न है। उपा सना के क्षेत्र में जिन भावों का नाम लिया जाता है उनमें उस बुद्धि के भावों क विचार होता है जो उपास्य एवं उपासक में संबंध स्थापित करती है। अतएव जन हम किसी की भक्ति-भावना को माधुर्य भाव की कहते हैं तब हमारा तात्पर्य यह नहीं होता कि उसमें रति के अतिरिक्त किसी अन्य भाव की प्रतिष्ठा है ; प्रत्युत् यह होता है कि उपास्य में उपासक की बुद्धि रति वा पति-पत्नी भाव की है अर्थात् उसका यह भाव उसके संबंध का भाव है कुछ हृदय या सत्त्ववृत्ति का कदार नहीं । नहीं तो सच पूछिए तो उपासना में जितने भाव होते हैं उन सब का एकमात्र स्रोत रति ही है। भय और विस्मय को लेकर जो उपासना खड़ी होती है वह भी रति से शून्य नहीं कही जा सकती। किंतु रति के इस स्वरूप का बोध कराने के पहले माधुर्य एवं मादन भाव के विभेद पर विचार कर लेना चाहिए। सो माधुर्य भाव के नामकरण प्रधान कारण रति-भाव के प्रास्वादन की मधु- रता ही है। रति का समुचित परिपाक पति-पत्नी को छोड़ किसी अन्य भाव की भक्ति में नहीं हो पाता । फलतः उनका आस्वादन भी रस की कोटि तक नहीं पहुंच पाता,