पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/१४

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एक बात और। इन सूफियों के प्रेम का प्रभाव हमारे यहाँ के कुछ कवियों पर भी पड़ा है और हमारे यहाँ के भक्ति-भाव का प्रभाव कुछ अन्य मुसलमान कवियो पर भी। अस्तु, इस प्रभाव को जानकारी में भी इस 'भूमिका' से कुछ सहायता मिले, यह दृष्टि भी इसकी रचना में अपने सामने रही है और अपने अध्ययन का एक अंग यह भी रहा है। संक्षेप में, प्रथम खंड तो पुस्तक के रूप में यह प्रकाशित हो रहा है किन्तु शेष तीन खंड अभी विचार के रूप में ही पड़े हैं। यदि समय और हृदय ने साथ दिया तो उनका अध्ययन भी कभी इससे अधिक अच्छे और व्यवस्थित रूप में सब के सामने आ सकेगा। अन्यथा तोष के लिये तो तुलसी बाबा का यह पद है ही—

"डासत ही भव-निसा सिरानी कबहुँ न नाथ नींद भरि सोयो।"

अन्त में निवेदन इतना ही करना है कि यदि श्री राम बहोरीजी शुक्ल तथा श्री विश्वनाथ प्रसादजी मिश्र की कृपा और प्रेरणा न होती तो इसका प्रकाशन भी न होता और न होता पाठकों का इससे वह लगाव जो इस प्रकार आज इससे आप ही हो रहा है। रही अपनी बात। सो आज इसे इस रूप में प्रकाशित देखकर न तो उल्लास ही हो रहा है और न उत्साह ही। हाँ, इस को देखकर इतना दुःख अवश्य होता है कि यदि इसे छपना ही था तो तब क्यों न छपी जब इस पर 'दुइ बोल' लिखनेवाला भी कोई विद्यमान था। आज स्वर्गीय पंडित रामचन्द्रजी शुक्ल का अभाव जितना खल रहा है उतना पहले कभी नहीं खला। बस। यह तो उन्हीं के आशीर्वाद का प्रसाद है, फिर किसी को दूँ क्या? हाँ, इसके अध्ययनमें श्री मौलवी महेशप्रसाद जी आलिम फाजिल से जो सहायता बराबर मिली है उसके उल्लेख की आवश्यकता नहीं। किन्तु यदि अन्त की अनुक्रमणिकाओं से किस का लाभ हो गया तो इसका श्रेय श्री ज्ञानवती त्रिवेदी को अवश्य है जिन्होंने अस्वस्थता की दशा में भी इस पर श्रम किया है, अन्यथा इसका होना तो अपने लिये कठिन ही था। शेष में, त्रुटियों के लिये क्षमायाचना के अतिरिक्त यदि और कुछ बचा तो उन विद्वानों का आभार जिनके आधार पर यह रचना खड़ी है। अच्छा होता यदि इस रचना में मूल का अधिक हाध होता पर डाक्टरी की चीज में