पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/१४१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

तसव्वुफ अथवा सूफीमत अहंभाव नहीं रह जाता। बस वही वह रह जाता है। निदान हम से वह भिन्न नहीं है । हाँ, उससे हम भिन्न अवश्य हो गए हैं । भिन्नता का आवरण उसके प्रसाद से हट जाता है, किंतु तो भी प्रमादवश उसे हम फिर अपना लेते हैं। अस्तु, यदि हम प्रपन्न हो सब कुछ उसी पर छोड़ दें तो वह हमारे श्रावरण को हटा दे और हम चट उसके अंक में पहुँच जायँ । राग तो हमारा अनादि है ही, बस प्रणय की देर है। प्रणय तो हमारा पुराना है ही, बस अहंकार वा मान का ठेना खुदी मिटी कि खुदा बने । प्रियतम के द्वार पर पड़े पड़े युग बीत गए, पर कपाट न खुला । प्रियतम परि- चय मांगता है। उसे अपना परिचय न जाने कितने रुपों में दिया जाता है, कितने कृत्यों का निदर्शन किया जाता है, कितने महानुभावों की सनद पेश की जाती है, पर उसका मन नहीं पसीजता। वह यही कहता है कि जगह नहीं। उसका प्रश्न होता है- -'कौन' ? उत्तर दिया जाता है-'मैं' । जवाब मिलता है-कहीं और देखो। यहाँ मैं को जगह नहीं । भ्रमण करते करते जब कहीं भी 'मैं' को शरण नहीं मिलती तब उसे ग्लानि होती है कि इस 'मैं' के फेर में मैं क्यों पड़ा । 'मैं' के कारण ही तो मुझको अलग होना पड़ा । यदि 'मैं' न होता तो क्या होता ? इतना सोचना हुआ कि चट वह प्रियतम के द्वार पर पहुँचा। भीतर से ध्वनि उठी-'कौन' ? उत्तर मिला--'तू' फिर क्या था, कपाट खुला और आनंद का सागर उमड़ पड़ा । कठोर संसारभी आनंदमय हो गया। उसे 'बका' मिल गई जो 'फना' के बाद ही आती है। विप्रलंभ में सूफियों के जो विलाप होते हैं उनमें इस बात की आशा बराबर बनी रहती है कि हमारी संवेदना महामिलन का विधान कर हमको प्रियतम का शाश्वत सुख प्रदान करेगी। यही कारण है कि वियोग की दशा में कभी कभी स्वप्न में ही सही, प्रियतम के साक्षात्कार तथा उसके स्पर्श का सुख मिलता रहता है । यदि चरम संयोग के महासुख का आस्वाद सर्वथा अगोचर रहे तो प्राणी भूलकर भी उसके लिये प्रयत्न न करे। उसके लिये यातना की तो बात ही क्या ? सूफी औ यह समझते ही हैं कि लोकिक संभोग उस अलौकिक रसनिधि का एक छींटा