पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/१४२

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भावना १२५ है जो लुभाने के लिये आनंद के उत्कर्ष में दे दिया जाता है। सूफी 'वस्ल' की कामना उसी के आधार पर करते हैं । वस्ल में प्रेमी और प्रिय का भाव पूरा पूरा बना रहता है, उसमें अद्वैत का भान ही भर हो पाता है। सूफी वस्ल से आगे बढ़कर 'जिमाअ' ( संपृक्त ) का आनंद लेते हैं। जिमा में प्रेमी और प्रिय का समन्वय हो जाता है। किसी का अभिमान नहीं रह जातां । उसका स्वरूप सायुज्य सा हो जाता है, कैवल्य नहीं । कारण कि भावना के क्षेत्र में द्वैत का सर्वतः लोप नहीं हो सकता, उसका कुछ न कुछ भाव रहता ही है। सूफियों को अद्वैत का आभास वासना तथा प्रज्ञा के द्वार से मिलता है । रति का व्यायाम करते करते किंवा विरह जगाते जगाते जब सूफी मूर्छित हो जाते हैं तब उनको इस तथ्य का पता लग जाता है कि उनका प्रियतम उनसे अभिन्न है। सूफी इस दशा को 'सुक' (उन्माद) कहते हैं । सुक्र की एकता प्रेम-मद की दशा की एकता है, वह किसी प्रज्ञान पर अवलंबित नहीं है । चेतना के आने से अब चित्त ठिकाने आ जाता है तब फिर पुरानी बातें सामने आने लगती हैं। उनका समाधान करते करते चित्त की वह ऋत्ति हो जाती है जिसमें उसके सभी प्रश्नों का समन्वय हो जाता है और उसकी अनुभूति इतनी पक्की पड़ जाती है कि किसी प्रकार के तर्क- वितर्क से उसकी निष्ठा में बाधा नहीं पाती। सूफी इसी को 'शह' कहते हैं । 'शह्व' को ज्ञान और 'सुक' को भक्ति की दशा कह सकते हैं । प्रियतम के मार्ग में जो अंतराय आते हैं, जो व्यवधान पड़ते हैं, उनसे साधक में अनेक भावों का संचार होता रहता है। मन की चंचलता प्रसिद्ध ही है । संसार की हवा लगने से मानस में न जाने कितनी तरंगों का संचार होता है, जिनसे अंतः- करण के रंग बदलते रहते हैं । सूफियों के मानस में जो भाव उठते हैं, उसमें जो वेग काम करते हैं और उनसे जो वृत्तियाँ जागती हैं उनकी अवहेलना हो नही सकती। जन सामान्य की रति से सूफियों की अलौकिक रति की रचना इन्हीं तरंगों के आधार पर होती है। रति में हम 'अहं' का त्याग तो करते हैं, किंतु उसका संस्कार बना ही रहता है । प्रियतम की प्राप्ति में हमारे गर्व का ध्वंस हो जाता है और हम दीन बन जाते हैं । संसार के भोग-विलास से जब हम तुष्ट नहीं होते और