पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/१४५

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८. अध्यात्म अध्यात्म आत्मचिंतन का परिणाम है, किसी संदेश वा आदेश का अंग नहीं । आदेशके आधार पर टिकने वाले धर्म किंवा संदेश के आश्रय में पलने वाले मत कभी अध्यात्म का सृजन नहीं कर सकते। वे अधिक से अधिक किसी अव्यक्त सत्ता की झलक दिखा सकते हैं, उसका प्रतिपादन नहीं कर सकते। जो लोग इस तथ्य से भलीभाँति परिचित हैं उनकी समझ में यह स्वतः स्पष्ट हो जाता है कि शामी जातियों में क्रिसी अध्यात्म के विकास के लिये कितना स्थान था और उसके उदय तथा प्रसार में उनका कितना योग था। सूफीमत के प्रकांड पंडित एवं इसलाम के सच्चे सपूत भी इस बात से मुकर नहीं सकते कि अरव स्वभावतः अध्यात्म के प्रेमी नहीं थे। उनका ध्यान तत्त्वचिंतन से कहीं अधिक संग्राम पर रहता था। शस्त्र को वे शास्त्र से अधिक महत्त्व देते थे। स्वयं मुहम्मद साहब को सफलतः शस्त्र पर अवलंबित थी, कुछ शास्त्र पर नहीं। हम नहीं कहते कि अरब अथवा इसलाम में किसी अध्यात्म की योग्यता ही न थी । नहीं, हमारा कहना तो यह है कि अरब अध्यात्म-व्यवसायी न थे। सामान्य मानव भावभूमि की एकता में तो किसी को संदेह नहीं ; पर मनोवृत्तियों की एकता प्रकृति की समता पर निर्भर होती है। यूनान, भारत, प्रभृति आर्य देशों की प्रकृति अरव, शाम प्रभृति भूखंडों से सर्वथा भिन्न है। जैसे शामी जातियों को शांति की चिंता थी वैसे ही आर्य भी शांति-पाठ करते थे, किंतु दोनों का लक्ष्य एक न था। एक की शांति कामना एकदेशीय और बाहरी थी तो दूसरे की सार्व- भौम और भीतरी । एक शांत समाज चाहता था तो दूसरा शांत चित्त । यही कारण है कि शामी जातियों का आधिदैवत तो अत्यंत पुष्ट है किंतु उनका अध्यात्म ऊपर से पैबंद सा जुड़ा जान पड़ता है। यहूदी, मसीही, मुहम्मदी क्या, एक भी शामी अध्यात्म इतना स्वतंत्र और पुष्ट नहीं है कि हम उसको उसीके आधार पर खड़ा कर सकें। फीलों, क्लेमेंट, जिली आदि विद्वानों की कौन कहे, स्वयं मूसा, ईसा