पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/१४७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१३० तसव्वुफ अथवा सूफीमत साधु तसव्वुफ तो मानने से रहे। कारण, किसी मत के प्रति उदार होना एक बात है और उसको ग्रहण कर लेना उससे भिन्न सर्वथा दूसरी बात । सूफी अन्य मागे। से सहानुभूति इसलिये नहीं रखते कि वे उनको अपनाने के पक्ष में हैं, प्रत्युत इसलिये रखते हैं कि उनका लक्ष्य भी प्रकारांतर से वही है जिसके वियोग में वं स्वतः तड़पते और जिसकी खोज में स्वयं तत्पर होते हैं। यही कारण है कि सूफियों के सरस अध्यात्म में भी मुहम्मद साहब के नाना रूप दिखाई देते हैं और अंत में उन्हें साकार अथवा शंकर के 'ईश्वर' की प्रतिष्ठा प्राप्त हो जाती है । महमूद गजनवी के सिक्के पर तो 'मुहम्मद' को 'अवतार' ही लिखा गया है-"अव्यक्तमेकं मुहम्मद अवतार नृपति महमूद।" है न यही बात ? जो हो, उपनिषदों का अध्यात्म ब्रह्म और आत्मा को लेकर आगे बढ़ा । उन्हीं के समन्वय में वह लीन रहा । ऋषियों ने वेद को अपरा' की उपाधि दे कर्मकांडों को गौण ठहराया। उन्होंने प्रात्मा को सर्वथा मुक्त कर, उसके सच्चे स्वरूप का निदर्शन कर जिस अद्वैत का प्रतिपादन किया उसमें किसी प्रकार का भी भेद-भाव न रह गया। यदि संसार के सभी अद्वैती इतिहास पर ध्यान दिया जाय तो व्यक्त हो जाता है कि सर्वत्र उसका समादर पूर्णतः नहीं तो अंशतः अवश्य हुआ है। इसका प्रमुख कारण मनुष्य मात्र की सामान्य भाव-भूमि पर पहुँचने की सहज प्रवृत्ति ही कही जा सकती है । परन्तु इसी के आधार पर यह नहीं कहा जा सकता है कि एक देश के अद्वैत का दूसरे देश के अद्वैत पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा । भावना की पद्धति एक होने पर भी उसके प्रतिपादन की प्रणाली, उसके निरूपण की रीति एवं उसके विवेचन के रंग-ढंग से उसके बाहरी प्रभाव का पता लगाया जा सकता है। अतएव सूफियों के अध्यात्म को जो लोग वेदांत का प्रसाद अथवा नव अफलातूनी मत का फल समझते हैं, उनकी धारणा दुष्ट नहीं कही जा सकती। यद्यपि कभी-कभी उनकी दृष्टि सामान्य भावभूमि की अवहेलना कर कुछ अनर्थ अवश्य कर देती है तथापि यह मानना ही पड़ता है कि हो न हो तसव्वुफ में कुछ बाहर की टीप अवश्य है। (१) विचार के लिए देखिए 'दा थटीन प्रिंसिपल उपनिषदस' की भूमिका । (२) मंडूकोपनिषद्, प्र. मुं०, १-५ ।