पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/१५

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अंगरेजी की अवहेलना कैसे हो सकती थी और शक्ति का भी तो उस समय अच्छा अभाव था ! अस्तु, जो बना सो बना, जो बचा सो आगे देखा जायगा। 'भूमिका' को शिखर समझना भूल है, पर उसकी उपेक्षा भयावह भी । उपयोगिता के विचार से अन्त में जो परिशिष्ट दिए गए हैं उनके विषय में केवल यही कहना है कि यहाँ उनके अध्ययन का मार्ग भर दिखाया गया है । क्या ही अच्छा होता यदि उन पर ग्रन्थ भी प्रकाशित हो जाते । आशा है 'मुसलमानों की संस्कृत-सेवा' में कुछ 'भारत' के 'ऋण' पर और विचार हो जायगा परंतु प्रथम पर तो अभी कुछ होता नहीं दिखाई देता। यद्यपि है वह भी अपने अध्ययन का श्रावश्यक अंग। निदान, कहना यह रहा कि लिपि और अज्ञता के कारण जो नाम ठीक से नहीं पड़े गए अथवा विस्मृति और विचार के कारण जहाँ-तहाँ जो-सो हो गए उनका कुछ परिमार्जन तो अनुक्रमणिका से हो जायगा और शेष का दूर होना किसी अगले संस्करण में ही संभव है। सच तो यह है कि अभी शब्दों की एकरूपता का पक्का विधान हिन्दी में नहीं हो पाया है ; फिर उसकी चिन्ता क्या ? क्या कोई माई का लाल यह बीड़ा उठाकर हिन्दी को कृतार्थ करेगा ? दोष-दर्शक को पहले से ही साधुवाद । कारण, उसके बिना किसी को प्रात्मदर्शन नहीं होता । विनीत माघी पूर्णिमा, काशी, विश्वविद्यालय। चन्द्रबली पांडे २८-१-४५