पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/१५३

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ससव्वुफ अथवा सूफीमत अभिन्नता तो ठीक, पर इस जगत की क्या दशा है ? उसका अल्लाह और जीर से क्या संबंध है ? सो कुरान के सामने त. इन प्रश्नों की उलझन थी ही नहीं । मुहम्मद साहब को तो सीधे नियत आदेश का प्रचार भर करना था, और सुनाना था अल्लाह का संदेश । फिर उनके कट्टर अनुयायियों के लिये भी इतना ही पर्याप्त क्यों न होता कि अल्लाह मालिक है, कर्ता है सब कुछ है । उसके 'कुन' मात्र से जब सारी सृष्टि हो गई तब फिर भला उसकी इच्छा मात्र से उसका लोप भी क्यों नहीं हो जायगा ? पर सूफियों को इतने से ही संतोष कहाँ ? उनके सामने तो जगत् का भी प्रश्न बना है। अंत में विवश हो उन्हें उसके भाव-अभाव, उपादान, निमित्त आदि का विचार भी करना ही पड़ता है। फिर भी, उनकी मीमांसा उतनी स्वच्छ और प्रांजल नहीं हो पाती जितनी वेदांतियों की होती है। बात यह है कि उनको उन घोर परिस्थितियों का भी सामना करना तथा उन प्रश्नों का भी समाधान करना होता है जो इसलाम के अंग बन गए हैं और जिनकी उपेक्षा किसी भी दशा में प्राण-दंड से कम नहीं होती। निदान तसव्वुफ में वेदान्त का तेज कहाँ ? हाँ, तो सूफियों को जिस विकट परिस्थिति में अद्वैत का प्रतिपादन करना था वह वेदांतियों के देशकाल से सर्वथा भिन्न थी ! माना कि वेदांती भी श्रुति के पक्षपाती हैं; पर उनको प्राणदंड का तो भय नहीं ? ऋषियों ने कर्मकांड की गणना 'अपरा" के भीतर कर साधना के क्षेत्र में जिस परा विद्या का विधान किया उसके प्रसाद से वेदांतियों की सारी बाधाएँ दूर हो गई और वे स्वच्छ तथा निर्मल बुद्धि-व्यवसाय के लिये सर्वथा स्वतंत्र हो गए। तभी तो नास्तिकों की वेद निंदा के विरोध में वेदांतियों के जो आंदोलन उठे उनमें ज्ञान की पूरी प्रातष्ठा हो सकी और वे ज्ञान के द्वारा उन्हें परास्त करते रहे कुछ फरमान फतवा वा दंड के द्वारा नहीं । उधर कुरान भी जन्म से अपौरुषेय है । किंतु उसमें विभूतियों का निदर्शन नहीं, अल्लाह के संदेश और मुहम्मद के दूतत्व का विधान है। उसके संकीर्ण और विहित मार्ग में मीनमेष की प्राज्ञा नहीं । अतः उसकी नद के बिना किसी मत का प्रदर्शन किया नहीं जा सकता। उसके आलोचकों की कुशल नहीं। (१) मुडकोपनिषत, प्र० मु० ३.५० ।