पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/१५४

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अध्यात्म निदान, सूफियों को एक निहायत तंग और संकुचित गली से आगे बढ़ना पड़ा। कहने को तो तसव्वुफ में भी जीव, जगत् और ईश्वर की व्याख्या होती रही, किंतु अधिकतर उसमें ईश्वर की ही बात रही। इंसान अपने को हक समझ कर शांत हो गया तो उसका ध्यान जगत् पर बहुत ही कम गया । यद्यपि वेदांत में भी जगत् पर उतना ध्यान नहीं दिया गया है जितना आत्मा या परमात्मा पर तथापि उसमें जगत् की अच्छी और पूर्ण मीमांसा हुई है । हो, मध्व के सिद्धांत में द्वैत का अर्थ है जीव और ईश्वर एवं ईश्वर और जगत् की तिता। पर वस्तुतः है इस द्वैत के नामकरण का मूल कारण एक तो जीव और ईश्वर की हूँ'तता और दूसरे शंकर के श्रत का विरोध । अन्यथा वास्तव में प्रकृति और पुरुष का पक्षपाती सांख्य ही द्वैत का सच्चा प्रतिपादक कहा जा सकता है। मध्व के द्वैतवाद के प्रमाण पर सूफियों की जगत् की उपेक्षा कुछ क्षम्य हो जाती है, किंतु इससे उनके अध्यात्म की पूर्णता तो नहीं सिद्ध हो जाती ? उपनिषदों में ब्रह्म और आत्मा के समन्वय में वास्तव में जिस प्रत का निरूपण किया गया है उसमें ईश्वर नाम की परम सत्ता नहीं है । पर सूफियों के सामने सब से बड़ी अड़चन सदा यही रही कि उनको अल्लाह से ही अपने अध्यात्म का आरंभ करना होता है । फलतः वह बहुत कुछ एकांत और अद्वैत भाव तक ही सीमित रह जाता है और उसमें अद्वैतवाद का ग्रौढ़ प्रतिपादन खुल कर नहीं हो पाता। इमाम गजाली का कहना है कि ईश्वर का ज्ञान बिना जगत पर विचार किए ही हो जाता है। सामान्यतः इसलाम ने उसकी बात मान भी ली है; परन्तु अपनी तात्विक दृष्टि की प्रधानता के कारण अरबी ( मृ० १२६३) ने गजाली की इस प्रतिज्ञा में दोष निकाला है। उसका कहना है कि जगत् की उपेक्षा करने से ईश्वर का बोध नहीं हो सकता । ईश्वर परम सत्ता नहीं; एक उपास्य देवता है, अतः उसकी उपा- सना के लिये किसी उपासक का होना अनिवार्य है। जगत् की सत्ता को अस्वीकार (१) स्टडीज़ इन इसलामिक मिस्टीसीज्म, पृ० १५० । (२) पृ० १५०॥ " " ,