पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/१६०

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अध्यात्म जीव के विवेचन के पहले ही आदम और मुहम्मद के संबंध पर विचार करना अत्यंत आवश्यक प्रतीत होता है। मुहम्मद साहब ने अपने को स्वयं रसूल कहा था और उनके नाम का विधान भी उनके जीते जी सलात में अल्लाह के साथ हो गया था, तो भी उनको इस रूप का भान न था जो उनको उनके निधन के उपरांत दिया गया । मसीही संघ ने बहुत पहले ही मसीह को प्रेम, प्राण, प्रकाश आदि सिद्ध कर उनको परमेश्वर का एक मात्र पुत्र और परम तारक बना लिया था। मसीह परम पिता की क्रियाशक्ति के रूप में अंकित थे। मुसलमानों की भक्तिभावना भी कुछ इसी ढरें पर आगे बढ़ी । सूफियों ने घोषणा कर दी कि यद्यपि मुहम्मद दूतत्व की दृष्टि से अंतिम रसूल हैं तथापि परमेश्वर के प्यार की दृष्टि से उनका स्थान सर्वप्रथम है । अल्लाह ने श्रात्मज्ञापन की प्रेरणा से जब अव्यक्त से व्यक्त होने की कामना की तब उसे ज्योति का निर्माण करना पड़ा। अंधकार के कारण सत् अलक्ष्य था, इससे उसको परिलक्षित करने की कामना से अल्लाह ने 'नूर' को उत्पन्न किया । मुहम्मद साहब की वास्तविक सत्ता यही 'नूर' है। इस नूर से 'जल', 'पावक', एवं 'समीर' का प्रादुर्भाव उसी प्रकार मान लिया गया जिस प्रकार हमारे यहाँ आकाश से शेष तन्मात्राओं को कहा गया । इसलाम आकाश जैसे सूक्ष्म तत्त्व का चिंतन नहीं करता । यूनानी दर्शन में भी इस तत्व का अभाव, था फिर इसलाम में कहाँ से आ जाता? सूफीमत पर विचार करते समय हम मुहम्मद को भूल नहीं सकते । चिंतन के कारण अल्लाह का स्वरूप जितना ही सूक्ष्म होता जाता था, मनोरागों तथा भय के दबाव के कारण उसके रसूल का स्थान उतना ही भव्य तथा मनोरम । इसलाम में सगुण क्या, साकार अल्लाह की प्रतिछा थी । तसव्वुफ ने अल्लाह को 'अमा' तक पहुँचा दिया । उसे निरंजन बना दिया । निरंजन या निर्गुण तर्क का परिणाम होता है, हृदय का आलंबन नहीं । कोई आलंबन जय कारण विशेष के प्रभाव में पड़ कर अपने गुणों को त्याग निर्गुण बनने लगता है तब हृदय उसका साथ छोड़ उसी से संबद्ध कोई दूसरा ठिकाना हूँढने लगता है । यही कारण है कि सूफियों को मुहम्मद साहब में उन सभी गुणों का आरोप करना पड़ा जो हृदय को लगाए रहते और 'क्षिति',