पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/१६२

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अध्यात्म ११५ भेद कैसा ? पश्चिम के पंडितों ने प्रायः ऐसे वचनों की भर्त्सना की है जिनमें सूफियों तथा वेदांतियों के 'न पापं न पुण्यं' का उद्घोष है। परंतु व्यवहार में तो सूफी नियम की अवहेलना कर पाप-पुण्य को एक ही नहीं कर देते, वे तो धर्माधर्म का बराबर ध्यान रखते हैं। हाँ, भावावेश की दशा में जब कभी उनमें प्रियतम का प्रकाश फूटता है तब उन्हें कहीं द्वन्द्व दिखाई नहीं देता, और उसकी छाया से सब कुछ प्रकाशमय हो जाता है। सत्रमुच उस समय पाप-पुण्य का सारा भेदभाव मिट जाता है; पर व्यवहार में नहीं । व्यवहार में तो सूफी मजहब के पावंद होते हैं और जिंदीकों की इसीलिये निंदा भी खूब करते हैं। पाप-पुण्य का सम्यक् विवेचन तभी संभव है जब जीव की परिस्थिति का ठीक ठीक पता हो जाय । सूफी साहित्य में जीव का शास्त्रीय विवेचन अधूरा है। वहाँ काव्य के आवरण में प्रतिपादित किया गया है कि जीव अल्लाह से भिन्न नहीं है । वस्तुतः दोनों एक ही हैं। इसमें तो संदेह नहीं कि सर्वत्र सूफियों ने अद्वैत का पक्ष लिया हैं। उनके अद्वैत के भी उसी प्रकार कई पक्ष हैं जिस प्रकार भारतीय अद्वैत के। हल्लाज की दृष्टि में जीव सर्वथा ब्रह्म नहीं बन सकता, वह पानी की भॉति शराब में मिल सकता है, पर बिल्कुल ब्रह्म ही नहीं हो सकता। उसकी सत्ता बनी अवश्य रहती है । कभी उसका पूर्णतः लोप नहीं होता, अतएव उसके यहां 'देवत्व' और 'मनुष्यत्व' 'लाहूत' और 'नासूत' का विचार है। उसका कथन है कि वह जिससे प्रेम करता है वह स्वतः वही है । वास्तव में एक ही शरीर में दो प्राण हैं, जो पर- स्पर प्रणयबद्ध हैं। अंतर केवल यह है कि प्रेमी के स्वरूप-बोध से प्रियतम का दर्शन मिल जाता है, पर प्रियतम के साक्षात्कार से दोनों की सत्ता स्पष्ट हो जाती है। 'रूमी ( मृ० १३३० ) हल्लाज से कुछ भिन्न है। उसका मत यह है कि प्रेमी और प्रिय देखने में भिन्न हैं ; पर तथ्यतः उनके युगल शरीर में, मिथुन रूप में एक ही आत्मा का निवास है। जिली का कहना है कि प्रेमी और प्रिय एक ही की आत्मा हैं जो क्रम से दो शरीर में रहते हैं। फारिज (मृ० १३४८) आग्रह (१) स्टडीज इन इसलामिक मिस्टीसीज्म, पृ० ८ ।