पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/१६३

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तसव्वुफ श्रथवा सूफीमत करता है कि प्रेमी सदैव प्रिय था और प्रिय सदैव प्रेमी था, उनमें कुछ भी अंतर न था। सचमुच सत्ता ही सत्ता से प्रेम करती थी। सारांश, सभी सूफी अद्वैत कः प्रदर्शन करते हैं, किंतु इसलाम की कठोरता के कारण खुलकर उसके प्रतिपादन में लीन नहीं हो पाते। फलतः उनके अद्धत के विषय में यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि वह कहाँ तक केवल, विशिष्ट, शुद्ध अथवा द्वैताद्वैत के अनुकूल है। हाँ अद्वैत भावना का प्रसार सर्वत्र दिखाई देता है। पर किस अद्वैत-बाद का, इसे खुलकर कौन कहे ? सूफियों का अद्वैत भाव-प्रधान है । दार्शनिक बाद का पूर्ण प्रकाश उसमें नहीं। इसलाम की करता स्वतंत्र चिंतन के सदा प्रतिकूल रही। विरोध की यह तत्परता शामी जातियों की विशेषता है। आगस्टीन भी विरोध के कारण दंड से भयभीत था। वह कह रहा था कि हम जिसकी भावना करते हैं वही बन जाते हैं, परंतु उसके मुंह से यह न निकल सका कि ईश्वर की भावना करने से हम ईश्वर हो जाते हैं। फारिज ने भी आगस्टीन का पक्ष लिया है। उसका दावा है कि प्रतीक रक्षक ही नहीं, उस सत्य के प्रदर्शक भी होते हैं जिसके प्रकाशन में वाणी असमर्थ होती है। प्रतीक की ओट में, रूपक और अन्योक्ति के सहारे सूफियों ने आत्म- रक्षा और अपने भावों का प्रदर्शन तो किया, पर साथ ही उनके मत का स्वरूप भी अस्थिर और संदिग्ध हो गया। उनके उद्गारों में अद्वैत की प्रधानता तो है, किंतु उनके व्याख्यानों में इसलाम का अनुमोदन है । इसलाम तौहीद का भक्त है, अतः तौहीद के आधार पर अत का प्रचार होता रहा । हल्लाज, अरबी, जिली प्रभृति प्रतिभाशाली पंडितों ने अपने विचारों का ग्रंथन किया। उनके अध्य- यन से स्पष्ट अवगत होता है कि उनमें चिंता का बहुत कुछ मेल है। अस्तु, हम देखते है कि अरबी जैसे समर्थ सूफियों ने भी खुल कर कभी नहीं कहा कि- "सत्यं ब्रह्म जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मव नापरः।” नहीं, वे तो बस किसी प्रकार (२) दो मिस्टिक्स प्राव इसलाम, पृ० ११८ ।