पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/१६५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१४८ ससव्वुफ अथवा सूफीमत खरे-खोटे को सदा बिलगाता रहे । अतएव अंत में जब अल्लाह फिर उससे आदम की अाराधना को कहेगा, तब वह कातर स्वर से निवेदन करेगा- "यदि यह अपने वश की बात होती तो मैं उसी क्षण आदम की पूजा करता जब मुझे उक्त आज्ञा मिली थी। अल्लाह मुझे आदम की उपासना की आज्ञा देता है, पर वह स्वतः नहीं चाहता कि मैं उसके आदेश का पालन करूँ। यदि वह ऐसा चाहता तो मैं अवश्य ही अादम की आराधना करता ।" सूफियों के यहाँ निचय ही इबलीस इसलाम का शैतान नहीं, पुराणों का नारद है जो अल्लाह का परम भक्त और अनन्य उपासक है। अल्लाह की आराधना और उसकी उपासना में उसकी इतनी अनन्य श्रद्धा है कि वह उसके आगे उसकी प्राज्ञा को भी कुछ महत्व नहीं देता और शाश्वत कष्ट सहने को तत्पर हो जाता है। यदि इबलीस न होता तो सभी अन्दाह के भक्त बन जाते, साधु-असाधु का प्रश्न ही उठ जाता और अल्लाह का जलाल व्यर्थ जाता । अस्तु सूफियों के विचार में इंसान इबलीस की प्रेरणा से नहीं, बल्कि नियति से भ्रष्ट होता है। नियति का प्रश्न इसलाम में अत्यंत जटिल है। मोतजिलियों ने न्याय का पक्ष लेकर सिद्ध किया कि अल्लाह कर्मों का फल देता है। अरबी कुरान के इस पद की--यदि अल्लाह चाहता तो सबको सत्पथ पर लाता-व्याख्या में स्पष्ट कहता है कि अल्लाह के न चाहने का कारण नियति के अतिरिक्त और क्या हो सकता है। अरबी पक्का कर्मवादी है। सूफी प्रसाद पर जोर देते हैं और उसोके भरोसे भव- सागर पार करना चाहते हैं, पर वे यह नहीं मानते कि अल्लाह नियति को प्रस्ताव्यस्त करता है। उनके मत में अल्लाह की यह कम कृपा नहीं है कि वह हमको सुधरने का अवसर देता है और बराबर हमको सावधान करता रहता है। उसके जमाल में उनको पूरा विश्वास है । उनको धारणा है कि रहमान ने रहम की प्रेरणा से प्रेरित हो अपने जलाल से नरक की रचना की। यही कारण है कि उसमें भी खाज खुजलाने (१) स्टडीज इन इसलामिक मिस्टीसीम, पृ० ५४ । (२) दी मुसलिम क्रीड, पृ० १६५ । (३) स्टडीन इन इसलामिक मिस्टीसीजम, पृ० १५७ ।