पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/१६६

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अध्यात्म १४९ का मा अानंद आता है और आशा की जाती है कि अंत में उसके प्रसाद से जीवमात्र का उद्धार जायगा और किसी को भी कोई शाश्वत दुःख भोगना न पड़ेगा। अस्तु, तसक्नुफ में इवलीस अल्लाह का वह रूप है जो अपनी दुष्टता से इंसान को सावधान करता है। वह अपराध, दोष, पाप और अवगुणों का अधिष्ठाता है। परंतु वास्तव में दुर्गुणों की तो स्वतंत्र सत्ता है ही नहीं। इबलीस भी तो दर्पण का पृष्ट ही है जिसके द्वारा पापकर्म में भी हमें प्रात्मदर्शन होता है और सच्चे साक्षात्कार के होते ही पाप का अभाव हो जाता है, जिससे सर्वत्र आत्मप्रकाश ही व्याप्त होता है। रूमी ने भलीभाँति समझा कर सिद्ध कर दिया है कि प्रकृत दोषों के कारण अल्लाह दोषी नहीं ठहरता, क्योंकि कुरूप का निर्माता चित्रकार कभी कुरूप नहीं कहा जाता ; हाँ, कुरूपता के अभाव में उसकी कला अपूर्ण अवश्य कही जाती । पुगध के प्रसंग में देववश पाप बन जाते हैं, पर प्राणी खतः पापी बनना नहीं चाहता। अरबी तथा हल्लाज के मत में अल्लाह के आदेश का अतिक्रमण ही अपराध हैं, पर वह उसके उद्देश्य का उल्लंघन नहीं ; प्रत्युत प्रकारांतर से उसीका पोषण है । प्रकाश के प्रभाव को अंधकार, पुण्य के अभाव को पाप, सत्व के श्रभाव को तम कहते हैं। वस्तुतः उनकी स्वतंत्र सत्ता नहीं, वे तो सापेक्ष हैं नास्तिकता और पाप तभी तक संभव हैं जब तक अल्लाह को अपना जलाल प्रकट । हम कह हो चुके हैं कि वास्तव में इबलीस दर्पण का पृष्ट है जो अल्लाह के प्रतिबिंब का कारण होता है। अतः जब तक साक्षात्कार नहीं होता तभी तक वह लगा दिखाई देता है, पर जहाँ साक्षात्कार हो गया वहाँ उसकी कोई आवश्यकता नहीं रही। सूफियों की दृष्टि में जब पाप के अधिष्ठाता इबलीस की ही यह दशा है तब उसके दुष्कर्म नित्य कैसे हो सकते हैं ? यही कारण है कि सूफी पाप को अभाव का द्योतक मानते हैं और कभी उसको शाश्वत नहीं समझते। 1 करना (१) दी मिस्टिक्स पाव इसलाम, पृ० ६७-६६ ।