पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/१७०

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अध्यात्म १५३ ! दुनिया में लगाती और परमार्थ से हटाती है तो सूफी उसको साधने के लिये 'मुजाहदा' करते हैं । "जिक', 'किक' आदि उपार्यों से इसपर अधिकार जमाते हैं कल्ब की चारों ओर इसी का पहरा है। इसको वश में किए बिना अल्लाह का साक्षात्कार हो नहीं सकता। जप-तप ही क्या, जिस प्रकार संभव हो इसका निरोध करना चाहिए। अतः हम चाहें तो 'नफ़्स' को वासना या चित्तवृत्ति कह सकते हैं, जिसके निरोध के लिये सूफी साधना करते हैं। प्रेम के क्षेत्र में सूफियों को इसी नफ्स को मारना वा वशीभून करना रहता है। विरह में तड़प-तड़प कर उनका बार बार मरना इसी नफ्स का मरना होता है । यदि नफ्स की चलती तो इंसान अल्लाह का नाम न लेता : किन्तु उसमें वह अलौकिक शक्ति है जो उसे बराबर अल्लाह की झलक दिखाती रहती है। सूफी उसी को रूह कहते हैं। अल्लाह ने इंसान में रूह की प्रतिष्ठा की। रूह की सत्ता शरीर से पहले भी थी। हदीस है कि रूह को दो सहस्र वर्ष के बाद शरीर मिला। रूह का राग अल्लाह और नक्स का लगाव शैतान से होता है। नफ्स निधन में शरीर के लिये रोती है और रूह समा में अल्लाह के लिये तड़पती है। हमारी रूह तब तक शांत नहीं होती जब तक उसे परम रूह का दीदार नहीं मिलता। इंसान की रूह अल्लाह की रूह की झलक है। जिस प्रकार किरण उतर कर जीवन को उष्ण करती और फिर सविता में समा जाती है उसी प्रकार रूह इंसान को प्रसन्न करती और फिर अल्लाह में निमग्न हो जाती है। दोनों का संपर्क नित्य बना रहता है । अल्लाह की रूह का जो संबंध सृष्टि से है वही इंसान की रूह का शरीर से । रूह सारे शरीर में व्याप्त है । उसका कोई रूप-रंग वा संस्थान नहीं । जिली ने सृष्टि का उपादान रूह को मान लिया। उसके मत में अल्लाह ने अपनी सत्ता को सर्वप्रथम रूह का रूप दिया। रूह ही परम देवता और सृष्टि की (१) स्टडीज़ इन इसलामिक मिस्टीसीज्म, पृ० २०४ । (२) पृ० १०९-१२॥ " 91