पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/१७२

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अध्यात्म १५५ तो भी नफ्स एवं रूह के द्वंद्व का मूल कारण अल्लाह ही है। शैतान था नहीं, अात्म-ज्ञापन के लिये अल्लाह ने अपने जलाल से उसे उत्पन्न किया । नफ्स की भी यही दशा है । वास्तव में रूह के अभाव में नफ्स को चलती है । रूह से नस की रचना है, नफ्स से रूह की नहीं। रूह और नफ्स में श्रालंबन का अंतर है, भाव वा आश्रय का नहीं । यही कारण है कि सफी प्रत्येक भावना, प्रत्येक उपासना और प्रत्येक भाव का आदर करते हैं। उनके विचार में नफ्स के भाप में भी इंसान अल्लाह की ही उपासना करता है। किसी अन्य सत्ता की नहीं। कमी उसमें केवल यही रह जाती है कि वह निष्काम नहीं हो पाता । बस, सभी भूपी सुर में नर मिलाकर एक साथ यही कहते हैं कि खुदी को दूर करो, तुम खुदा हो। अरे! तुम नक्स, इन्म वा खुदी के चकार में क्यों पड़े हो, कल्ब की क्यों नहीं सुनते? ग्नुदी को सफी सह नहीं सकते। उनकी समझ में अहंकार ही नास्तिकता है । अहं हक हो, सत्य हो, ब्रह्म हो, पर वह करता धरता तो कुछ भी नहीं । वह तो वास्तव में हक नहीं, हक का प्रतिबिंध है। तभी तो जो कुछ उसमें क्रिया दिखाई देती है वह उसके वश की नहीं होती और जब जैसा चाहनी है उससे कग लेती है ? निकर्ष यह कि यही नहीं अपितु विश्व में वनस्पति, पशु-पक्षी, जीव-जंतु आदि जो कुछ गोचर हो रहा है वह उसीके अंग-प्रत्यंग की छाया है और उसी का नखशिख सर्वत्र प्रतिफलित हो रहा है। वही सत्य है। शेष उसका प्रतिबिंब है जो उसके प्रेम को प्रकट कर उसके सौंदर्य पर उसी को निधावर करता है। सूफी उसी सौंदर्य की झलक पर मुग्ध हो उसके मूल स्रोत में मग्न होना चाहता है और उसी में तन्मय हो अपने को हक समझने लगता है। नहीं तो वस्तुतः जो स्फूर्ति बिंब में होती है उसी को वह व्यक्त करता है। क्योंकि वह उसी का प्रतिबिंब जो है। प्रतिबिंबवाद को सूफियों ने साधु माना है। बाद अथवा दर्शन की दृष्टि से सूफी प्रतिबिंबवादी कहे जा सकते हैं। कहने को यहाँ भी कुछ प्रतिबिंबवादी हो गए हैं पर दर्शन में उनको कुछ विशेष महत्त्व नहीं मिला । भारतीय दर्शन के प्रतिबिंब पर विचार करने का यह अवसर नहीं । यहाँ कहना तो केवल यह है कि