पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/१७६

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भावना १५६ दिया। उनके प्रेम का सहज अल्हापन जाता रहा । भावभंगियों और 'नाज-अंदाज' का जमाना आ गया। अरब अदा पर मरने लगे। भोग-विलास को प्रोत्साहन मिला । सामग्री प्रस्तुत थी। पर परदे के कारण रमणी बन्धन में जा पड़ी और मगबच सामने आ गए। हुम्न 'हरम' से फूट कर 'बाजार' में फैल गया और इसलाम ने खुले दिल उसका स्वागत किया। अरबी कविता में भी तसव्वुफ बस गया । परंतु फारसी सी कविता उसमें न हो सकी। अरबी में प्रथम श्रेणी के सूफी कवियों का अभाव सा है । अरब स्वभावतः प्रत्यक्षप्रिय और कठोर होते हैं। उनकी परोक्ष वा गुह्य में विशेष रुचि नहीं होती। हाँ, अरबी और फारिज अवश्य ही ऐसे अरबी सूफी कवि हैं जिनका काव्य सूफी साहित्य में आदर की दृष्टि से देखा जाता है। किंतु इनमें भी यदि ध्यान से देखा जाय तो कवित्व की अपेक्षा प्राचार्यत्व ही अधिक है। अरबी की रति का अलंबन इतना प्रगल्भ है कि उसे सर्वथा अली- किक मान लेना अत्यन्त कठिन है। इसी से उसको अपनी कविता की व्याख्या स्वयं लिखनी पड़ी। फारिज में प्रतीकों की प्रधानता है। उनके द्वारा उसने अपने मत का प्रदर्शन किया है, कुछ प्रेम-रस का प्रसार नहीं। तो भी अरबी में जो सूफी साहित्य है उसका अधिकांश स्वयं अरबों का नहीं, बल्कि ईरानियों का रचा है। ईरान में जब मुसलिम शासन प्रारंभ हो गया तब ईरानियों को भी अरबी का अध्ययन दीन तथा दुनिया के विचार से करना ही पड़ा। इरानी साहित्य के इतिहास का सबसे विकट और आवश्यक अंग जो अभी तक खुल नसका यह है कि इसलाम के पहले और कुछ बाद तक भी उसकी क्या अवस्था थी। प्रश्न देखने में जितना सरल और स्वाभाविकहै, उत्तर उतना ही कठिन और दुरुह । हाँ, अल्लामा शिबली सदृश मर्मज्ञ मनीषी का मत है-- "लेकिन चार शर भी हाथ न आए । फारसी के कदीम अशार न मिलते तो न मिलते , लेकिन शुअरा का नाम तो जबान पर होता । जब यह कुछ नहीं तो सिर्फ जमीन को बलवलाखेज़ी की शहादत कहाँ तक काम दे सकती है।......इसलिए जब तक ईरान में नालिस अरब की हुकुमत रही फारसी शाइरी ने ज़बान नहीं खोली। इस जमाने में अजम