पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/१७७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१६० तसव्वुफ अथधा सूफीमत में हजारों शुअरा पैदा हुए लेकिन जो कुछ कहते थे अरबी में ही कहते थे...मामून के जमाने में मुल्को शुआरा को ख़्याल पैदा हुआ कि मुल्की ज़बान की काददानी का भी वक्त आ गया।... वाक़ात मजकूरा से ज़ाहिर होगा कि ईरान में शाइरी की इन्तदा कुदरती तौर से नहीं, बल्कि इक्तसाबी तौर से हुई।...जो शहस शाइर होना चाहता था किताबों के जरिए से उसकी तालिम हासिल करता था। इसमें संदेह नहीं कि उक्त अल्लामा साहब का प्रकृत मत ही मुसलमान का प्रतिष्ठत मत है। इसलामी साहित्य के आधार पर मौलाना शिबली ने जो कुछ कहा है उसमें ननुनच की जगह नहीं। पर विचारणीय प्रश्न यहाँ यह है कि क्या किसी भी सभ्य जाति के इतिहास में यह संभव है कि उसमें किसी प्रकार की कविता प्रचलित न रही हो। उसे रोना और गाना भी किसी अन्य जाति मे सीखना पड़ा हो ? यदि नहीं, तो ईशान में ही इसका अपवाद क्यों मान लिया जाता है ? अली- गढ़-सम्प्रदाय का कहना है-कुछ मिलता जो नहीं । 'अजम' की संस्कृति एवं सभ्यता अरब से बढ़ी चढ़ी थी। ईरानियों के उत्थान- पतन न जाने कितनी बार हो चुके थे। स्वयं रसूल उनके प्रभाव से अछूते न रहे थे। पारसीकों के पास भी अपने धर्मग्रन्थ थे। अवस्ता और वेद में जो समता दिखाई देती है उसको देखते हुए यह नहीं कहा जा सकता कि एक ओर तो एक वर्ग में साहित्य की बाढ़ सी आ गई और दूसरी और उसके दूसरे वर्ग में उसके प्राण के भी लाले पड़ गए। हाँ, जो लोग इतिहास से सर्वथा अनभिज्ञ नहीं हैं उनको इस बात का कुछ पता अवश्य है कि इसलाम के पहले भी ईरान की सहज साहित्य धारा कुछ संकीर्णता से घिर गई थी। बात यह है कि पारसीयों का धर्माचार्य 'जरतुश्त' एक सुधारक साधु था। उसके संबंध में रबिधाबू का कहना है कि वही सर्वप्रथम पुरुष है जिसने मनुष्यमात्र को देश-काल से मुक्त कर आत्मा की स्वतंत्रता की ओर अग्रसर किया और यज्ञ का आध्यात्मिक अथ लगाया। कुछ भी हो, (१) शियरल् अजम, जिल्द चहारुम, पृ० ११२-११५ । (२) दी रेलिजन आव मैन, पृ० ७५, ६२ ।