पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/१७८

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साहित्य इतना तो स्पष्ट है कि जरतुश्त ने ईरान की विचार-धारा को बहुत कुछ सीमित कर दिया और उसके मतके प्रचार से एक विशेष ढंग के साहित्य को ही प्रोत्साहन मिला । जरतुश्त के अनंतर ईरानियों का विकास स्वाभानिक ढंग पर न हो सका। उनको एक संकुचित क्षेत्र से चलना पड़ा। प्राचीन धर्मग्रन्धों की व्याख्या प्रारंभ हुई और ईरानी अवस्ता, जेंद, पजंद की रक्षा में लग गए। परंतु मनुष्य की बुद्धि जब घेर दी जाती है तब वह उसी कटघरे के भीतर चुपचाप पड़ी नहीं रहती, बल्कि कुछ न कुछ अपना जौहर दिखाती ही रहती है- यदा कदा उसको स्कृति होती रहती है । बात यह है कि जरतुश्त के मतावलंबी भी पूरे कर्मकांडी हो गए थे और उनका ध्यान भी स्वभावतः कर्मकांड ही पर अधिक रहता था। फलतः जो कुछ चिंतन किया जाता था वह उन्हीं कर्मकांडों के प्रतिपादन के लिये होता था और इसीसे उपनिषदों की भांति 'गाथा' में अध्यात्म विद्या का रहस्य नहीं खुला। फिर भी देखने से पता चलता है कि ईरान में भी कुछ तपी, त्यागी और उदात्त' पुरुष थे ही। उनका भाव-भजन किस प्रकार चलता रहा इसका हमें ठीक-ठीक पता नहीं । परंतु इतना हम जानते हैं कि उनमें उन्हीं बातों को प्रधानता थी जो आगे चलकर सूफियों में प्रकट हुई। दकीक ने जो सुरति, मुरा, संगीत और जरतुश्त का गुणगान किया वह अति प्राचीन संस्कार का नवीन उद्गार भर था जो इसलाम के बाहरी दबाव के कारण छिद्र देखकर कहीं से फूट निकला था। ईरान की सूफी कविता में इस प्रकार के उदारों की कमी नहीं है। न जाने कितने कवियों ने ज़रतुश्त का स्मरण किया और मगों की मुरीदी की। 'पीरे मुगा' तो कवियों का प्रतीक ही हो गया है। कहने का तात्पर्य यह कि जरतुश्त के प्रचार और इसलाम के प्रावत ने सब कुछ किया पर पारस को मगों से मुक्त नहीं किया। फारसी-साहित्य के मग ही गुरु वने रहे। निदान मानना पड़ता है कि इसलाम के पहले भी ईरान की कोई न कोई काव्य-परम्परा अवश्य थी जिसका नाश अल्लाह के कट्टरबंदों ने कर दिया। (१) दो ट्रेजर आव दी मगी, पृ० ११४ । (२) ५ लिटरेरी हिस्टरी श्राव पशिया, प्रथम भाग पृ० ४५९ ।