पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/१७९

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१६२ तसव्वुफ अथवा सूफीमत इसलाम के प्रचार के पहले ईरान में सुशील अनूशीरवों का राज्य था। उसके शासन में कवियों पर किसी प्रकार का शासन न था। उसकी उदारता की प्रशंसा मुस- लिम भी खूब करते । उसके युग में ईरान ने सभी कलाओं में पूरा योग दिया और उनकी उन्नति की, तो केवल कविता में ही वह पीछे क्यों रह गया ? इसका भी तो कुछ उत्तर होना चाहिए ? उसके बहुत पहले इस पराधीन देश ने काव्य-कला का प्रदर्शन नहीं किया तो नहीं सही, किन्तु उसके वंश में तो उसे पूरी स्वतंत्रता मिली थी? सभी उत्थान को आकुल थे? फिर बिचारी कविता ही क्यों अलग रही? नात्पर्य यह कि ईरान की उस समय की प्रचलित भाषा में किसी न किसी ढंग की कविता अवश्य होती थी और अधिकतर उसमें प्रेम और मदिरा के मीत भी रहते ही थे। इसलाम के अवरोध के कारण उनका प्रबाह बदला और उनका स्थान नवीन छंदों को मिला । 'मसऊदी का कहना है कि ईरानी अपने मत को इब्राहीम का मत अथवा जरतुश्त को इब्राहीम कहने लग गए थे। जब जरतुश्त की यह दशा थी तब पुराने 'शुअरा' के नाम किसकी जुबान पर कैसे रह सकते थे ? आसमानी किताब के बंदों को इंसानी किताब से काम ही क्या था जो चार शेर किसी के हाथ आते ? किसी ने हाथ भी तो पसारा होता ? उलटे हुआ नो यह कि सारी ईरानी रचना ढूँढ़ ढूँढ़कर जला दी गई और 'ईरानी' का व्यवहार भी अपराध समझा गया। ईरान ही नहीं, अन्यत्र भी मुसलमानों ने प्रायः यही किया । (१) स्टडीज इन एशियंट पर्शियन हिस्टरी, पृ. २३ । (२) राजनीति के विचार से पर-भाषा के विषय में 'खलीफा मामून' का कहना यह था कि यदि विजित जाति के किसी काव ने अपनी देशभाषा को अपने विचारों का साधन बनाया और उसके द्वारा उनको प्रजा में फैला दिया तो राजा का राज करना कठिन हो जायगा। इसलिये प्रजा की भाषा का विनाश होना चाहिए । विचार से खलीफा उमर का निश्चय था कि "करान' के अतिरिक्त किसी 'रथ' की भावश्यकता नहीं। कारण कि यदि उसमें सत्य है तो वह कुरान में है ही और यदि और कुछ है तो उसके होने की आवश्यकता नही । बस उसे पानी में डाल दो अथवा मजहब के