पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/१८१

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तसव्वुफ अथवा सूफीमत पूरी मदद मिली जो जनता में गीति के रूप में प्रचलित थे। जान पड़ता है कि पहलवी भाषा में इस प्रकार की कविता वा वीरगाथाओं का पूरी प्रचार था। मुसलमानों की क्रूरता अथवा अरबों के प्रकोप के कारण ही उसका लोप हुआ अन्यथा उसके दो चार शेर तो अवश्य हाथ लग जाते । और लगे भी तो हैं ? परन्तु उन्हें देखता कौन है ? अाज हैदराबाद के उदार शासन में देश भाषाश्री के लिये जो हो रहा है उसे कौन नहीं जानता ? तो वह समय तो कुछ और भी निराला था। ऊपर जो कुछ कहा गया है उससे स्पष्ट है कि 'अजम' में भी कविता का उदय बिलकुल 'कुदरती' तौर पर हुआ था, 'इक्तसाबी तौर पर नहीं । अर्थात् ईरान में भी कविता ईरानी कंठ से अपने आप ही फूट पड़ी थी कुछ अरब के द्वारा फोड़ी . (१) ध्यान देने की बात है कि शम्सुल उल्मा अाज श्री मुहम्मद अब्दुल गनी माहव ने इस प्रश्न पर विशेष ध्यान दिया है और भरमक इस सत्र को फूल से उड़ा देने का प्रयल किया है। माना कि ईरानी ग्रंथों का नाश 'ग्रीक और पाथिया' के शासन में हुधा परन्तु 'सासानी' शासन में जो कुछ बना वह किम 'ग्रीक' के हाथ कहाँ गया ? नहीं, ऐसा हो नहीं सकता । आजकल के हिन्दी मुसलमान अरव-गुणगान में चाहे जो कुछ कहे पर यह ध्रुव सत्य है कि अरयों ने अपनी प्रभुता के मन में रानी वागय का विनाश किया। साक्षी के रुप में 'अब्दुल रहमान इब्न खलदू से विचारक, अरेहा अल् बेल्नी' से पंडित और 'दौलतशाह समरकन्दा' से साहित्यशास्त्री का उल्लेख भर पर्याप्त होगा। इन सभी उद्भट विद्वानों ने एक स्वर से माना तथा बताया है कि ईरानी वाणय का विनाश अरवी शासन में किस प्रकार हुअा। आप इसे चाहे इस्लाम का प्रताप समझें चाहे अरब-शासन की नीति, पर हुआ यही। श्री 'गनी' साहब के विचार के लिये देखिए, उनकी पुस्तक 'प्रीमुगला पशियन, इन हिंदुस्तान' पृ. ६३.६७ । (२) श्री 'गनी' महोदय को ठंडे दिल से विचार करना चाहिए और देखना यह चाहिए कि 'खलीफा मामून' के शासन में ठीक उसी प्रकार अरबी भाषा और साहित्य को वृद्धि हुई जिस प्रकार अाज नव्याब 'उसमान अली के शासन में उनकी भाषा उर्दू को हो रही है । 'मामून' ने भी 'ईरानी' को उसी दृष्टि से देखा जिस दृष्टि से हजरत