पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/१८२

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साहित्य नहीं गई थी। जो हो, मानीमन के जो अवशिष्ट मिले हैं उनमें मादनभाव का विधान है ही : निदान हमको मानना पड़ता है कि ईरान में कवि बराबर पैदा होते रहे पर फारसी में कविता करने की परिपाटी नब चली जब ईरान इसलाम का उपासक हो गया और अरबी में काफी साहित्य पैदा कर चुका । अतः उस समय उसके लिये यह उपयोगी न था कि इसलाम और अरबी की सर्वथा उपेक्षा कर किसी नवीन पद्धति पर चलना । निदान जब ईरानी इसलाम में अपनी अलग जगह बना सके और इसलाम का शासन भी ढीला पड़ गया तब फिर वे अरबी को तिला मलि रे फारसी में कविता करने लगे। ईरानियों की इस मनोवृत्ति पर लोग हैरान हात है और प्रार्थ के साथ कहते हैं कि पुराने लोगों ने ईरानियों को सच्चा क्यों समझ लिया था; क्योकि इसलाम में सारे उपद्रवों के कारण वास्तव में ईरानी ही तो थे ? बात यह है कि ईरान को अपनी संस्कृति और सभ्यता का गर्व है। इसलाम की आँधी में उसका पतन तो हो गया, पर उसे अपना स्वरूप न भूला और वह समय पाते ही जहाँ नहाँ फट निकला। तसव्वुफ और फारसी साहित्य उसी का परिणाम है। शीया मन तो आज भी ईरान का राजमत है । सारांश यह कि इसलाम के प्रचार के पहले और बाद में भी ईरान में सच्ची कविता का सर्वथा अभाव न था । सच तो यह है कि जो बीज बहुत दिनों से ईरान की जनता में दबा पड़ा था वही अब्बासियों के पतन से लहलहा कर फूट निकला और 'सामानी' शासन में अपने प्रामोद से इसलाम को सुरभित भी कर दिया। 'उसमान' 'हिंदी' को आज देख रहे हैं। रही 'उदार' अकबर की बात ! सो दुनिया जानती है कि उसीके उार शामन में हिंदी 'शामन' (करमान) से हटी और 'सिक्को' से भी दूर । सच तो यह है कि जिस प्रोफेसर बनी' साइब प्रमाण समझते हैं वही उनके प्रतिकूल गवाही देता है और यह प्रकट दिखा देता है कि किस प्रकार कुशल और कूटश शामक प्रा की भाषा का सहार करते है और शामित को अपनी पोली बोलने को विवश कर देते है। श्री 'गनी' के तर्क के लिये देखिए 'प्री-मुगल पाशियन' का वहाँ अश । (१) मुसलिम रिव्यू , १६२७ ३० भाग २, पृ. ३० । डाक्टर मोदी मेमोरियल वाल्यूम, पृ० ३४१-४४ ।