पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/१९१

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१०. हास सूफियों के व्यापक प्रभाव को देख कर यह जानने की इच्छा स्वतः उत्पन्न हो जाती है कि उनकी आधुनिक परिस्थिति कैसी है और वे किस प्रकार अपने मत के प्रचार में लीन हैं और इसलाम या मुसलिम शासकों की धारणा उनके प्रति क्या । सो गत प्रकरणों में हम पहले ही देख चुके हैं कि सूफियों की दशा सदा बदलती रही है--कमी तो उनके सद्भावों का पूर्णतः प्राविर्भाव हुआ जो कभी फिर उन्हीं भावों का सहसा तिरोभाव । बात यह है कि जब कभी बाहरी बातों का आतंक छा जाता है, लोग कर्मकांडों में आवश्यकता से अधिक नरत हो जाते हैं और किसी अंतरात्मा की पुकार नहीं सुनी जाती, तब किसी न किसी महात्मा का उदय अवश्य होता है जो बाहरी क्रिया-कलापों से हटाकर हमें अपने भीतर देखने की दृष्टि देता है और 'ज़ाहिर' की अपेक्षा बातिन' को ही अधिक ठीक ठहराता है। उसके अथक प्रयत्न से बाहरी बातों का सत्व घट जाता है और लोग हृदय के भीतर झाँकने लगते हैं । यह झाँकना भी जब रूढ़ हो जाता है और लोग किसी लकीर के फिर फकीर बन जाते हैं तब किसी अन्य महापुरुष का प्रावि- र्भाव होता है जो जनता को फिर से किसी प्रशस्त मार्ग पर चलाना चाहता है। वह भी जिन बातों पर जोर देता तथा जिन कार्यों को करता है उसकी भी एक प्रणाली सी निश्चित हो जाती है और उपासक उसी प्रणाली पर आँख मूंदकर चलने लगते हैं । परिणाम यह होता है कि उसका भी महत्त्व नष्ट हो जाता है और लोग उसकी बातों की भी परेड सी करते रहते हैं । इस परेड में बाहरी एकता चाहे जितनी बनी रहे, पर इसमें वह स्वतंत्र चिंतन नहीं रह जाता जिसके प्रसाद से मनुष्य प्राणिमात्र को अपना रूप समझता और जीवमात्र की सुधि लेता है। इस प्रकार कालांतर में प्रकट प्रच्छन्न वा प्रत्यक्ष परोक्ष को दबा देता है और फिर रूदियों का राज्य स्थापित हो जाता है । मंगोलों के आक्रमण के समय तसव्वुफ की भी ठीक