पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/१९३

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तमत्वुफ अथवा सूफीमत स्वतंत्र ईरान ने अपने उत्कर्ष के लिये शीग्रामत को ग्रहण किया और उसी को अपना राजमत माना । जब तक ईरान अरबी या तुर्की सेना से प्राक्रांत था तब तक वह रसूल का उपासक था पर जहाँ उसको स्वतंत्रता मिली वह इमामपरस्त हो गया। इमाम में रसूल का खून और ईरान का रक्त था। फिर वह उसकी अराधना में क्यो नहीं लग जाता ? अायों की देव-भावना शानियों से भिन्न थी। आर्य जिस देवता की उपासना करते थे उसका साक्षात्कार भी कर सकते थे और उसे अभीष्ट रूप भी दे लेते थे, किंतु शामियो की धारणा इससे सर्वथा भिन्न थी। उन्हें जीते-जी देवता का दर्शन नहीं मिल सकता था, यद्यपि वह था शरीरधारी एक परम देवता ही। शीना-संप्रदाय ने भी आगे चलकर गुप्त इमाम की कल्पना की। उसकी दृष्टि में इमाम महदी जो गुप्त हो गए हैं फिर प्रकट होंगे और भक्तों की सुधि लेंगे। धीरे धीरे इस धारणा का प्रचार इसलाम में इतना हो गया कि सभी इमाम महदी की बाट जोहने लगे । ईरानी अग्निपूजक थे । फलतः उनका नूर भी इमाम में उतरा। शस्त्रिा कहते हैं कि रसूल की कला इमाम में और ईमाम की कला शासक में उत्त- रती है। शासक इमाम का अंश होता है, अतः उसमें इमाम की ज्योति देखनी चाहिए। इमामों की संख्या के संबंध में शीया एकमत नहीं हैं। उनमें से कुछ तो सात इमामों को मानते हैं और कुछ बारह इमामों को; पर वास्तव में इमामपरस्त हैं सभी। सभी अपने को अली का कुत्ता वा उनके वंश का दास समझते हैं। शीआ एक बात में अति उदार और ठीक हैं। उनके विचार में धर्म परिवर्तन- शील है। सुन्नी संप्रदाय की दृष्टि में धार्मिक प्रश्नों और मजहबी गुत्थियों के सुलझाने के लिये किसी नवीन पद्धति का अनुसरण नहीं किया जा सकना । पंडितो या "फकीहों' का काम यह है कि वे प्राचीन ग्रंथों के आधार पर यह निश्चित कर दें कि धर्माचार्यों की राय किस विषय में क्या है। इन्हीं के आधार पर 'फतवा' देने का अधिकार किसी सुन्नी मुल्ला को प्राप्त है। सुन्नियों की धारणा है कि प्राचार्य हंबल के बाद स्वतंत्र 'फतवा' का द्वार उसी प्रकार बंद हो गया जिस प्रकार मुह- (१) इसराएल, पृ० ४५८ ।