पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/१९४

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हास म्मद साहब के बाद इश्वरी पैगाम का। पर शीला इस धारणा को ठीक नहीं सम- झते। मजहबी सवालों को हल करने के लिये वे सुन्नियों से आगे बढ़ते और 'इजतिहाद' में विश्वास करते हैं। उनके विचार में जिस प्रकार मुहम्मद साहब की कला अथवा इमाम का अंत नहीं होता उसी प्रकार व्यवस्था देने का अधिकार भी किसी हंबल के बाद नष्ट नहीं हो जाता। भक्ति-भावना के लिये 'इमाम' और धार्मिक व्यवस्था के लिये 'मुजतहिद' का होना अनिवार्य है। शीनामत का जो संक्षिप्त परिचय दिया गया है उसका तात्पर्य है कि ईरान की वास्तविक स्थिति को ठीक ठीक समझ सकें। ईरान की वस्तु-स्थिति को जाने बिना हम तसव्वुफ के मर्म से अभिज्ञ नहीं हो सकते। ईरान में तसव्वुफ के लिये तभी तक जगह थी जब तक उसका राजमत शोभा नहीं हुआ था। शीया वस्तुतः सफो नहीं हो सकते । उनकी भक्ति-भावना किसी निरंजन या निराकार को लेकर आगे नहीं बढ़ सकती। उसके लिये तो अल्लाह का नूर ही मूर्त- रूप में प्रकट होता है और वह इमाम के रूप में सदा बना भी रहता है। तो फिर वह प्रत्यक्ष को छोड़कर किसी परोक्ष के पीछे क्यों मरे ? अली अथवा इमाम से प्रकट तारक को छोड़ कर किसी अलख का विरह क्यों मोल ले? वह तो आराध्य को कोसता नहीं प्रत्युत उसके लिये हथेली पर प्राण लिये रहता है। शायद इसीलिये वह कुछ उग्र और कठोर भी हो जाता है। वह 'शाह' नहीं 'कल्ब' (कुत्ता) है। कल्पना के प्रेम और प्रमोद से उसका जी नहीं भरता । वह तो अपने को अपने उपास्य पर चढ़ा देता है और नित्य उसीकी सेवा में निरत रहता है। उधर सूफियों की सफलता लोक-रुचि पर निर्भर थी। 'फकोह' दरबारों में जमे रहते थे और जनता के हृदय से उनका सीधा सम्बन्ध कुछ भी न था। जनता उनको पहचानती भी नहीं थी। परंतु फकीरों को वह अपना तारक समझती थी और उनकी दुआ के लिये उनके पास दौड़ती रहती थी। दरवेश भी उसके द्वार खटखटाते और उसकी प्रार्थना पर ध्यान देते थे। जो काम लकीर से नहीं चलता था उसे फकीर कर देते थे। लोग उनकी बातों को ध्यान से सुनते थे, उनके आख्यानों का अर्थ लगाते थे, उनके अलौकिक १२