पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/१९७

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१८० ससम्वुफ अथवा सूफीमत भावना तसव्वुफ का प्रतिपादन नहीं कर सकती। उसके सामने तो केवल राष्ट्रहित का प्रश्न रहता है कुछ समूचे विश्व का नहीं। अनः सफदी वंश ने भी 'इश्क' को छोड़ 'ईरान' को अपनाया और वियोगी सूफियों को वहाँ से दूर मार भगाया। सफवी वंश के उपरांत जो वंश ईरान के शासक हुए उनमें भी राष्ट्रभावना बनी रही। वे कभी इतने उदार न हुए कि ईरान में तसव्वुफ की फिर प्रतिष्टा होती । जब कभी अवसर मिला ईरान में तसञ्चुफ की तान छिड़ी पर फिर कभी उसकी चैन की वंशी न बजी। उसके प्रतीक चलते रहे पर ग्राण उनमें न रहा। कहा जाता है कि पहले के सूफियों ने तसव्वुफ के बारे में इतना कुछ कह दिया था कि पिछले कवियों के लिये उसमें कुछ जोड़ना कठिन था। हो सकता है, सूफी-साहित्य के ह्रास का एक कारण यह भी हो, किन्तु इसी से तो तसव्वुफ की दुर्गति का प्रश्न हल नहीं हो जाता है इसके लिए तो शोभामत का दुर्भाव मानना ही होगा। शोभामत के प्रचार ने तसव्वुफ को हड़प लिया। मुरीद आशिक से इमामपरस्त हो गए और हसन-हुसैन की मिन्नत से मनचाही चीज पाने लगे। कवि भी उनकी कथा में लीन हुए। 'रति' को शोक ने खदेड़ दिया। ईरान में करुण रस की धारा फूट निकली। "रति' को भारत में स्थान मिला। मुगल उस पर टूट पड़े और वह रंग उड़ाया कि ईरानी भी मात हो गए। उधर ईरान का संबंध यूरोप से जुटा तो इधर उसमें एक नये मत का जन्म हुश्रा । सैयद अली मुहम्मद 'इमाम महदी' का 'बाब' ( द्वार) बना और कहने लगा कि उसीके द्वारा लुप्त इमाम का दर्शन किया जा सकता है। प्रारंभ में तो वह बाब ही बना रहा, पर धीरे धीरे अन्त में उसने अपने को इमाम महदी का अवतार ही घोषित कर दिया । उसके चेलों ने भी उसे ब्रह्मस्वरूप माना और उसको 'खुदा श्राफरी' कहा । एक भक्त ने तो उसके एक प्रसिद्ध अनुयायी ( बहाउल्लाह) को, जो स्वयं स्वतंत्र मत ( बहाई ) का प्रवर्तक बन बैठा, यहाँ तक कह दिया कि- "लोग तुझे 'खुदा' कहते हैं। यह अजब की बात है। बस, परदा हटा ले । ख़ुदा के लांछन को अधिक न सह।" (१)पहिस्टरी आव पशियन लिटरेचर इन माडर्न टाइम्स, पृ० १५१ ।