पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/१९८

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१८१ 'कहाउल्लाह' वास्तव में उपासकों की दृष्टि में परम सत्ता का व्क्क रूप है जिसको वे खुदा का भी खुदा मानते हैं। शोधासंप्रदाय के इस दल ने तसव्वुफ को और भी धक्का दिया । लोग 'बाब' की उपासना में लगे और सूफियों के 'कुन्ब' वा 'इंसानुल कामिल' का महत्व जाता रहा : सूफी बाब के भक्त बन गए और भजन की गुह्यता जाती रही। गत महासमर ने जिस व्यापक और भयानक परिस्थिति को उत्पण किया उसके प्रकोप से संसार का कोना कोना काँप उठा। सभी देशों को भविष्य की चिंता सताने लगी। ईरान ने यद्यपि उसमें कोई सक्रिय योग नहीं दिया तथापि उसपर भी उसका पूरा प्रभाव पड़ा । धीरे धीरे उस में भी सुधार होने लगे। उसे अपने प्राचीन इतिहास का गर्व और प्राचीन संस्कृति का लोभ हुआ। किन्तु तुर्कों की भाँति चरण में उसने न तो इसलाम को निकाल ही फेंका और न पठानों की भांति अपने कठमुल्लाओं का स्वागत ही किया। बाबमत भी रुक सा गया। रिजाशाह पद्दलवी में वह शक्ति थी जो किसी शेख को बंदी बना सकती है और ईरानी भाषा से अरबी शब्दों को निकाल फेंकने का आदेश दे सकती है। उसकी पह्लवी' उपाधि से सिद्ध होता है कि आज ईरान को किसी फिरदौसी की जरूरत है, हाफिज या किसी अन्य सूफी की नहीं । ईरान आज इसी गति से भागे बढ़ रहा है। ईरानी साहित्य में नवीन भावों तथा विचारों का प्रकाशन हो रहा है । उसके वर्तमान कवि सजग, सजीव और सावधान हैं। उनकी रचनाओं में तसव्वुफ की अवहेलना और राष्ट्र की आराधना बोल रही है। तुर्क भी अाज सूफियों के प्रति वही व्यवहार कर रहे हैं जो सफवी वंश के शासन में ईरान ने तसव्वुफ के साथ किया था। तुर्क सदा से नीति-निपुण हैं। वे नीति के पाखन में दीन की चिंता नहीं करते। जो लोग तुर्कों की प्रकृति से अपरिचित हैं उन्हें उनकी प्रगति पर आश्चर्य हो सकता है और उनकी बातों को वे आश्चर्य के साय देख सकते हैं। परन्तु जो उनके स्वभाव से परिचित और उनकी नीति से अभिज्ञ हैं उनको इन बातों पर आश्चर्य नहीं होता। कहा तो यहाँ तक जाता है कि कमाल पाशा ने इसलाम को टकी से बिदा कर दिया, और जो कुछ उसमें इसलाम