पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/२०

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३. मिन्न समझा। इस प्रकार स्वतः इसलाम में तसव्वुफ़ के सबंध में मतभेद रहा। कभी उसके विषय में मुसलिम एकमत न हो सके। मुसलमानों के पतन के बाद मसीहियों का सितारा चमका । सूफियों और मसीही संतों में बहुत कुछ साम्य था ही। मसीहियों ने उचित समझा कि सूफियों को पूर। नहीं तो कम से कम आधा तो अवश्य ही मसीही सिद् किया जाय । निदान, उन्होंने कहना शुरू किया कि प्रारंभ के सूफी यूहन्ना वा मसीह के शिष्य थे । पादरियों के लिये तो इतना कह देना काफी था, पर मसीही मनीषियों को इतने से संतोष न हो सका। उन्होंने देखा कि जैसे कुरान की सहायता से तसव्वुफ इसलाम का प्रसाद नहीं सिद्ध हो सकता वैसे ही इंजील के आधार पर भी उसको मसीही मत का प्रसाद नहीं कहा जा सकता। तत्र तसव्वुफ अाया कहाँ से ? आर्य-उद्गम तो उनको रुचिकर न था, फिर भी, उन्हें उन विद्वानों को शांत करना था जो तस- व्वुफ़ को आर्य-संस्कार का अभ्युत्थान अथवा वेदांत का मधुर गान समझते थे। अस्तु. उन्होंने नास्टिक और मानी मत के साथ ही साथ न-अफलातूनी मत की शरण ली। अब नव-अफलातूनी-मत की सहायता से उन प्रमारणों का निराकरण किया गया जिनके कारण तसबुफ भारत का प्रसाद समझा जाता था। किंतु जब उससे भी पृग न पड़ा तब विवश हो, इतिहास के आधार पर, बाद के सूफियों पर भारत का प्रभाव मान लिया गया और तसव्वुफ अंशतः प्राचीन आर्य-संस्कृति का अभ्युत्थान सिद्ध हुआ। तो भी मुसलिम साहित्य के मर्मज्ञ पंडितों के सामने सूफीमत के उद्भव का प्रश्न बराबर बना रहा। अंत में उनको उचित जान पड़ा कि इसलाम की भाँति ही उसको भी कुरान का मत मान लिया जाय । निदान, निकल्सने तथा ब्राउन सदृश मर्मज्ञों ने सूफीमत का मूल-स्रोत कुरान में माना। माना कि कुरान में कतिपय स्थल सूफियों के सर्वथा अनुकूल हैं और उन्हीं के आधार पर (१) एलिटेरेरी हिस्टरी आव पर्शिया, पृ० ३०१ । (२) एलिटेरेरी हिस्टरी श्राब दी अरब्स, पृ० २३ ।