पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/२०१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

तसम्वुफ अथवा सूफीमत उसके लिये हितकर हो सकता है, किंतु उसके आचरण से उनका उद्धार नहीं । सारांश यह कि आजकल के तुर्क कवि कर्मयोगी हैं, प्रेम-पंथी कदापि नहीं। उनकी दृष्टि में देश और जाति के मंगल के लिये जो कुछ किया जाय और जिससे अपना अभ्युदय हो वही धर्म है । निरा तसव्वुफ उनके काम का नहीं । उनको परिश्रम और पुरुषार्थ में ईश्वर का साक्षात्कार होता है, कुछ कोरे प्रेम और कलित वेदना में नहीं । तुर्क फकीरी नहीं, शासन चाहते हैं और करते भी डट कर हैं। पराया मावभजन उन्हें नहीं भा सकता। फिर भी तुर्कों में कुछ इसलाम बचा है। रूस की तरह उसका उनमें सर्वथा लोप नहीं हो गया है। रूस में न इसलाम रहा और न तसव्युफ । शायद उसमें मजहब का नाम भी गुनाह हो गया है । यूरोप के अन्य देशों में जहां मुसलिम रह गए हैं तसव्वुफ की प्रतिष्ठा है। बालकन प्रदेशों में तो दरवेशों का आज भी पूर: समादर है। उन्हीं के प्राचार विचार और साधु व्यवहार से उक्त प्रांतों में इसलाम टिका है । फकीर किसी से द्रोह नहीं करते, फलतः मसीही भी उन्हें चाहते ही हैं । तुर्क अरबी और इसलाम की उपेक्षा भले ही कर लें, पर अरबी और इसलाम अरब की अपनी चीज तो हैं। फिर भला अरब उनको कैसे छोड़ सकते हैं ? फलतः अाज भी उनमें उनका वही सत्कार है। परंतु जैसा कि हम पहले ही देख चुके हैं अरब प्रकृति से फटे और प्रत्यक्षप्रिय होते हैं। तसव्वुफ उनके अनुकूल नहीं होता । अाज से सात आठ सौ वर्ष पहले एक अरब सजन ने इस बात की उग्र चेष्टा की थी कि इसलाम से उन सारी बाहरी बातों को जो उसमें घुस पड़ी हैं not Jack some good and noble qualities, but Ile lias attributes that have paralysed our national and normal growth. Our minds have remained puzzled in the midst of contradictions. The Persian disintegration is also due to the same thing." ( इजसिहाद, अगस्त १९२४ ई० से 'माँसलेम मेटालिटी' पृ० १२२- ३ पर अनूदित)