पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/२१०

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ही नहीं बने, उनका 'वतन' भी सारा जहाँ हो गया पर इस दौड़ में उन्हें सूझा भी तो 'पाकिस्तान' ही, कुछ क्रिसी 'अल्लाह' का 'दारुल इसलाम' नहीं । जो हो, राष्ट्रभक्त मौलाना अबुल कलाम 'आजाद' से मर्मज्ञों की कुरान की व्याख्या को देख कर यह विश्वास होने लगता है कि कुरान का एक मुहावना और सुंदर रूप भी है जिसको सूफियों किंवा मौलाना 'आजाद' ने देख लिया है। कुछ भी हो, पर सामान्यतः यहाँ की मुसलिम जनता पर सूफियों का आज भी पूरा प्रभाव है । साधारण जनता में अब भी फकीरों का वही सम्मान है ! मजारों और दरगाहों की वहीं प्रतिष्ठा है। खानकाहों में अब भी लोग तबलंक के लिये जाते हैं। उनके लिये 'दुअा मरी रहम अल्लाह' से बढ़ कर आज भी और कुछ नहीं है । अभी 'उर्स' धूमधाम से होता है और पीर परस्ती भी कम नहीं होती। मारांश यह कि अभी तसव्वुफ के प्रतिकूल कोई व्यापक आंदोलन नहीं उठा है । हाँ, सूफी फकीरों में से भी कुछ लोग मुसलिम आतों पर विशेष ध्यान देते जा रहे हैं और उनके प्रभाव से नाममात्र के मुसलिम भी कट्टर मुसलमान बनते जा रहे हैं। सब कुछ होते हुए भी भारत के मुसलिम सामान्यतः तसव्वुफ के कायल है और पीरी मुरीदी में विश्वास रखते हैं। भारत के अतिरिक्त सुमात्रा, जावा आदि द्वीपों में जो मुसलमान बसे हैं उनमें कभी भी इसलामी करता नहीं थी, उनमें आरंभ से ही तसव्वुफ का प्रवार और फकीरों की महिमा फैली है। वहां के मुसलमानों में अब भी बहुत कुछ हिंदूपन है । भारत में जो आंदोलन खड़े हुए और जो लोग उक्त द्वीपों में इसलाम के प्रचार के लिये गए उनका भी कुछ प्रभाव उन पर अवश्य पड़ा । पर अभी तक उनमें मजहबी कट्टरता नहीं आई । वे आज भी किसी सूफी के मुरीद हैं और किसो शाह की आराधना को किसी इसलाम से कम नहीं समझते।