पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/२१९

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तसवा ध्वुप्रथफ फीमत पता हमें चल चुका है । म्वारिफ अथवा इंट्यूशन के भी वास्तव में दो पक्ष हैं। एक तो वह जिसमें कलित कल्पना के आधार पर बहुत सी विलक्षण बातों की झांकी ली जाती है और जिसे हम लौकिक वा प्रकट कह सकते हैं और दूसरा वह जिसमें हम इतने तन्मय हो जाते हैं और जिसका स्वरूप इतना गुद्ध होता है कि हम उसे सचमुच देख नहीं पाते और इसी से उसे अलौकिक वा गुह्य कह सकते हैं। अस्तु, किसी भी दशा में इंट्यूशन को बुद्धि का विरोधी नहीं कह सकते । हां, प्रथम में भावना की प्रधानता और द्वितीय में चिंतन की पुष्टता होती है। योग में जिस 'ऋतंभरा प्रज्ञा' का विधान किया गया है वह यों ही उत्पन्न नहीं हो जाती, उसकी उपलब्धि के लिये बहुत कुछ 'निरोध' करना पड़ता है। माना कि प्रज्ञा बुद्धि की पहुँच से श्रागे की चीज है, किंतु इसी में यह कैसे मान लें कि वह बुद्धि के प्रतिकूल भी है ? नहीं, उसे हम बुद्धि की खरी कसौटी पर कर सकते हैं और उसकी सत्यता को किसी भी तक-वितर्क की खराद पर चढ़ा सकते है। यह ठीक है कि अनुभव की बातें तर्क से सिद्ध नहीं हो पाती, पर इसका तात्पर्य यह नहीं कि वे तर्क के विपरीत भी होती हैं। वास्तव में बुद्धि की भूमि में ही प्रज्ञा का उदय होता है। काम करते करते बुद्धि जब शिथिल हो सो-सी जाती है तब उसी में प्रज्ञा की स्फूर्ति होती है। किसी मनीषी ने ठीक ही कहा है कि निरी प्रज्ञा अंधी है । प्रज्ञा के संबंध में स्मरण रखना चाहिए कि बुद्धि में जो नहीं पाता, पर बुद्धि जिसको मानती है वास्तव में वही प्रज्ञा का विषय है । प्रज्ञा में हम विषय की चिंता तो नहीं करते, किंतु वह होता है किसी चिंता का ही परिणाम जो झट हमें अपनी झलक दिखा जाता है । सो उसके इस प्रदर्शन का कारण हमारी वह बुद्धि ही है जो उसके चिंतन में निमम थी पर श्रम की अधिकता के कारण सो सी गई थी। अस्तु, हमको मानना पड़ता है कि भविष्य में प्रज्ञा, म्वारिफ अथवा इंट्यूशन के आधार पर किसी ऐसे तथ्य का निरूपण नहीं किया जा सकता जिसका बुद्धि से कुछ भी संबंध न हो अथवा जो सर्वथा उसके प्रतिकूल हो। (१) इन्स्टिक्ट एड ट्यूशन, पृ० २६ । (२) एन आइडियलिस्ट व्यू पाव लाइफ, पृ० १८१ ।