पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/२२१

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२०४ . तसव्वुफ अथवा सूफीमत तिलांजलि दे सूफियो' ने जिस अद्वैत का पञ्च लिया उसमें अल्लाह जैसा कोई ठोस पदार्थ न था। उसमें किसी प्रकार का गहरा भेद-भाव भी न था। प्रेमी और प्रिय दोनों वास्तव में दो नहीं थे। जो कुछ विभूनियाँ विश्व में गोचर होती हैं उनको पारिफ विभु की लीलामात्र समझता है; और मानता है कि उस परम सत्ता के अतिरिक्त कोई अन्य सत्ता नहीं है : वास्तवमें वही प्रेमी और प्रिय भी है। अस्तु, हम देखते हैं कि सूफी हाकिंग के 'तत्' के कायल हैं और 'नत्वमसि' का आदेश भी करते हैं। उनके इस तत्वमसि को किसी विज्ञान का भय नहीं बल्कि विज्ञान भी प्रकारांतर से इसी का प्रतिपादन करता है। प्रतीत होता है कि मनोविज्ञान के कहर पंडित भी मानस-शास्त्र के आधार पर इसी तस्वमसि का निदर्शन कर रहे हैं और यही कारण है कि हाल और इलहाम को अब वह प्रतिष्ठा नहीं मिल रही है जो कभी उसे सहज ही प्राप्त थी। श्राज तो उसे लोग किसी भूखे रोग का परिणाम समझने लगे हैं, किसी अलौकिक सत्ता का प्रसाद नहीं। प्रज्ञा एवं अंतःसंज्ञा के संबंध में अन्वेषकों की चाहे जैसी धारणा रहे पर सूफी तो सदा से उनको प्रेम के अन्तर्गत समझते पा रहे हैं और उसी के आधार पर उनका निदर्शन भी करते रहे हैं। प्रेम के प्रदर्शन में ही सूफी पंडितों ने प्रज्ञा का प्रतिपादन किया और प्रेम के ही आवरण में सूफी-सिद्धांतों का प्रचार भी किया। इसमें तो संदेह नहीं कि सूफियों ने अपने उद्धार के हेतु ही प्रज्ञा का स्वागत नहीं किया। नहीं, उन्होंने तो अपने प्रियतम के साक्षात्कार के लिये ही उसका आश्रय लिया । प्रज्ञा की उद्भावना करानेवाला यह प्रेम ही सूफियों का सर्वस्व है । यह प्रेम ही एक ऐसी बस्तु है जिसके द्वारा हम सूफियों को वेदांतियों से अलग कर पाते हैं और उन्हें पहचानने में देर भी नहीं लगती। सूफियों के प्रेम के संबंध में हम पहले ही कह चुके हैं कि उसका पालंबन प्रायः अमरद होता है । किसी अमरद को लक्ष्य कर सूफी जिस प्रियतम का विरह जगाते हैं पह परमात्मा या परमसत्ता के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं । उनके पालंबन का विवरण चाहे जितना और (१) रेशनल मिस्टीसोज्म, पृ० ४२८ ।