पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/२२२

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भविष्य २०५ प्रत्यक्ष हो उससे उन्हें कुछ मतलब नहीं । उनको तो 'हुस्नेबुता के परदे में अल्लाह का नूर देखना रहता है। उसी की व्यक्तिगत आभा को तो सूफी हुस्न कहते हैं ? फिर 'हुस्न' का 'अल्लाह' से विरोध कैसा ? भक्तों के भगवान् प्रत्यक्ष होते हैं। उसकी प्रतिमा भी होती है। भक्त उसी में प्राण-प्रतिष्ठा कर उसे प्रियतम बना लेते हैं। उनके प्रियतस में जिम शील, शक्ति और सौंदर्य का विधान रहता है उसका एक ठोस इतिहास होता है । भावना के प्रचंड आवेश में उनको अपने इष्टदेव का प्रत्यक्ष दर्शन भी कभी कभी हो जाता है और उन्हें राम या कृष्ण के अवतारो रूप का आभास भी मिल जाता है। किंतु मसीही संतों की दशा इसमे कुछ भिन्न है। फिर भी उन्हें भी कुमारी मरियम या मसीह का दर्शन हो ही जाता है। सूफियों में जो रसूल या मुरशिद को माशूक बनाते हैं वे मसीही संतों से अलग इसलिये हो जाते हैं कि वे इसको मजाजी के भीतर ही मानते हैं। मसीही-संतों में जो 'कैथलिक' होते हैं उनकी गणना वास्तव में भक्तों में होनी चाहिए। श्री लूथर ने जिस 'प्रोटेस्टेंट' दल का संघटन किया वह वास्तव में बहुत कुछ धर्म खाकर ही धार्मिक बना। उसमें जो संत निकले और जिन्होंने उद्वारके लिये जिस रति का पल्ला पकड़ा वह अधिकतर सूफी भक्ति-भावना के अनुरूप थी। वे पुत्र के प्रेम में पिता का प्रेम पाते थे। पर पश्चिम में विज्ञान के प्रचार के कारण उनके प्रेम प्रवाह में बाधा पड़ी और प्रेम ने एक नवीन रूप धारण कर लिया। इस प्रकार संस्कार तथा परिस्थिति के कारण एक ही भावना के अनेक भाव दिखाई देने लगे। प्रज्ञा और अंतःसंज्ञा के संबंध में मनोविज्ञान के कहर पंडितों की चाहे जो धारया हो पर प्रेम के पथिक सूफियों को उससे कुछ विशेष प्रयोजन नहीं । मतवाले सूफियों के लिये तो इश्क ही सब कुछ है । सूफियों के इश्क के संबंध में हम पहले ही कह चुके हैं कि उसका वास्तविक आलंबन अलक्ष्य होता है, पर साथ ही वह प्रत्यच और मजाज़ी के भीतर अपना जलवा भी दिखाता रहता है । निष्कर्ष यह कि सूफी लौकिक प्रेम की सर्वथा उप्रेक्षा नहीं करते, बल्कि उसी के आवरण में परम प्रेम का विरह जगाते हैं। निदान, हम देखते हैं कि मनोविज्ञान का भय सूफियों को उतना नहीं जितना मसीही संतों को है। फलतः प्रेम के क्षेत्र में भी चिंतन का