पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/२२५

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तसव्वुफ अथवा सूफीमत भोग को लिप्सा प्रचंड होती जा रही है और दूसरी और रमखी का उससे संबंध ही नहीं गिना जाता । वह कुछ और ही समझी जा रही है। और इतने पर भी प्रकोप यह कि अर्थसंकट की घोर परिस्थिति ने संतान निग्रह को जो महत्व दिया है उसका प्रभाव यह पड़ रहा है कि लोग प्रणय से विमुख हो पाणिग्रहण की आवश्यकता ही नहीं समझते। अस्तु, जिस सहजानंद के संबंध में हम अब तक बहुत कुछ कह चुके हैं उसका प्रचार भी बढ़ता ही जा रहा है। कारण,उसके निरोध की आवश्यकता ही नहीं रही। विशेषता उसमें यह अा रही है कि पुराने संस्कारों तथा शिष्ट व्यवहारों के कारण उसके प्रकाशन में गोपन खूब होता जा रहा है। सूफियों को तो इस बात की चिंता न थी कि उनका आलंबन किसी प्रकार भी लौकिक न समझा जाय ; किन्तु अाजकल के अलोकिक प्रेमी के लिये यह अनिवार्य है कि वह अपने प्रेम को इस प्रकार व्यक्त करे कि उसमें कहीं इस बात की गंध न मिले कि उसके प्रेम का आलंबन कोई लौकिक व्यक्ति है। अब इस दुराव के लिये उसे बहुत कुछ प्रकृति-प्रपंच से काम लेना पड़ता है और प्रतीकों के रूप में ही अपने दिल को खोलना पड़ता है। कहना न होगा कि इस प्रकार के प्रेम-प्रसंगों में नखशिख की कोई दृढ़ योजना न होगी और प्रेमी प्रच्छन्न वा अद्भुत रूप में अपने भावों को व्यक्त करेगा। तात्पर्य यह कि भविष्य का सूफी मजाजी की उपेक्षा कर केवल हकीकी का पक्ष लेगा जो वास्तव में मजाजी का ही परिमार्जित रूप होगा और जिसमें नखशिख की अपेक्षा कुछ और ही पर विशेष ध्यान दिया जायगा। चाहे कुछ भी हो, पर प्रेम के प्रसंग में यह कभी नहीं हो सकता कि उसका सहज रति से कोई संबंध न रहे। अतः सूफियों के भविष्य के प्रेम-प्रलाप में भी 'वस्ल' की बहार होगी पर उसे व्यभिचार का प्रसाद नहीं कहा जा सकता । कारण कि वह साधना का अंग जो है। (१) पश्चिम के पंडितों और उन्हीं को देखादेखी कतिपय भारतीय महानुभावों का कहना है कि सूफी भाचार पर ध्यान नहीं देते और पाप-पुण्य को एक ही समझते है : उनका यह कहना कितना निराधार है इसका पता कदाचित् रानडे महोदय के इस कथन से चल जाय----"And a Mystic saying that Mysticism starve