पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/२३

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तसव्वुफ अथवा सूफीमत गई । मूसा अपने पूर्वजों की भूमि पर अधिकार जमाना चाहते थे। मुहम्मद साहब को भी अरब या बनी इसमाईल का कई प्रकार से उत्थान करना था । संन्यास से उन्हें चिढ़ और संयत संभोग से प्रेम था। निदान मूसा और मुहम्मद ने प्रति-मार्ग पर जोर दिया और संयत रांभोग का विधान किया । पर मसीह और उनन, प्रधान शिष्य पोस्नुस ने विरति का पक्ष लिया और उनके प्रभाव से लोग लौकिक रति से विमुख हो गए। उधर अफलातून ने यूनानी गुह्य टोलियों की सहज रति को परम रति का चोला दे अलौकिक प्रेम का प्रतिपादन किया था, इधर सूफियों के प्रेम-प्रचार से रति को प्रोत्साहन मिला । फलतः यूरोप में मग्रीही संतो का उदय हुआ जो कुमारी मरियम या मसीह के प्रेम में नड़पने लगे। संयोग के लिए कलप उठे। निदान, मसीह के निवृत्ति-प्रधान मार्ग में आध्यात्मिक प्रणय का स्वागत हुआ और लौकिक रति अलौकिक प्रणय में परिणत हो गई। अच्छा तो गत विवेचन से स्पष्ट होता है कि काम-वासना वा रति-भावना को ही विरोध एवं अंतरायों के कारण प्रेम का रूप प्राप्त होता है और उन्हीं के कारण धीरे धीरे भीतर ही भीतर परिमार्जित होती रहने से सामान्य रति को परम प्रेम की पदवी मिलती है ; और इसी से तो सूफी आज भी इश्क मजाजी को इश्क हकीकी की सीढ़ी समझते हैं और किसी 'युत' से दिल लगाने में नहीं हिचकते ? उनकी इम बुत- परस्ती का लक्ष्य कोरा इश्क नहीं बका है और बका बा परमानंद के लिए ही सूफी किसी प्राणी से प्रेम कर परम प्रेम का अनुभव करते और सदा बड़ी तत्परता से उसका विरह जगाते रहते हैं। विचारणीय प्रश्न यहाँ पर यह उठता है कि सामान्य रति को परम रति की पदवी क्यों मिली और क्यों सूफी इस प्रकार इश्क हकीकी को महत्त्व दे उसके रहस्योद्घाटन में लीन हुए, एवं शामी जातियों में रति का विरोध क्यों छिड़ा और लोग भीतर ही भीतर उसके स्वागत में मग्न क्यों रहे, तथा कहाँ तक उनको अपने गुल्य-प्रयास में सफलता मिली और अंत में क्यों उनके मादन भाव को व्यापक रूप मिल गया ? सो अब तो इसमें संदेह नहीं कि परम प्रेम के लिए श्रालंबन का परम होना अनिवार्य है। प्राणी परम के लिए लालायित तभी होता है जब सामान्य से उसे सुख,