पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/२३०

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परिशिष्ट १ सूफियों में भी अनेक संघ स्थापित हो गए और वे अपने-अपने सिलसिले का प्रचार करने लगे। इससे तसव्वुफ के प्रचार में नया जीवन आ गया और लोग उसकी ओर और भी चाव से बढ़ने लगे। परंतु, जैसा कि प्रायः देखा जाता है, संघ प्रेम के प्रचारक ही नहीं, व्यभिचार के अड्डे भी होते हैं। रसूल कभी-कभी आते हैं तो शैतान सदा पीछे पड़ा रहता है। निदान उसके प्रताप से अनेक सूफी अपने लक्ष्य से गिरे और बहुत से तो शैतान के पक्के मुरीद बन गए । पर सामा- न्यतः समष्टि-दृष्टि से जनता पर उनका प्रभाव सदा अच्छा ही रहा । उनके दोष भी गुण ही गिने गए। बात यह थी कि सूफियों में एक दल ऐसा भी था जो जान- बूझकर दुराचारों का प्रदर्शन इस दृष्टि से करता था कि लोग उससे घृणा करें और दूर रहें । इस प्रकार सूफियों के पाप भी प्रकारांतर से पुण्य या प्रेम के प्रसाद ही समझे जाते थे। सूफी वास्तव में जितने पाक थे उससे कहीं अधिक जनता को पवित्र दिखाई देते थे। समर्थ पीरों में दोष की कल्पना मुरीदों के चित्त में, कैसे उठ सकती थी ? वे अपनी बाहरी आँखों को झूठ या दोषी ठहरा सकते थे, किंतु किसी फकीर में दोष नहीं देख सकते थे। किसी दरवेश की मौज को कौन जान सकता है ? उसकी बातों पर गौर करना और उसके कहे पर चलना ही मुरीदों का 'गाई' है। उसके प्राचार-विचार और उसके व्यवहार पर टीका-टिप्पणी करने की उनमें क्षमता कहाँ ? निदान, सूफियों की दुआ और तबरुक से लोगों के क्लेश कट जाते हैं। तावीज़ से 'जिन्न' भाग जाते और मिन्नत से मनचाही चीज मिल जाती हैं । अन्यथा होने पर श्रद्धा और विश्वास की कमी समझी जाती है ; उनकी शक्ति और सामर्थ्य की नहीं। सारांश यह कि उनके प्रसाद से लोक-परलोक दोनों ही सध जाते हैं और जनता उन्हीं के इशारे पर चलती है। जब कभी उसमें अन्यथा भाव आता है तब उस पर आपत्तियों के पहाड़ टूट पड़ते हैं और वह किसी कत्र पर चिराग जलाने या किसी फकीर से तबर्सक हासिल. करने चट पहुँच जाती है । उसके रक्षक फकीर और पीर ही हैं । मुसलिम दृष्टि से इसमें इसलाम की अवहेलना भले ही हो, पर सूफियों के प्रभाव से मुसलिम हृदय ने किया यही । मुरीदी के प्रचारक सूफियों की संख्या कम न थी। एक शेख के कई खलीफे