पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/२३१

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२११ तसम्वुफ अथवा सूफीमत और न जाने कितने धावन होते थे जो मत के प्रचार तथा सिलसिले की देख-भाल में लगे रहते थे। सूफियों के सिलसिलों की कोई सीमा नहीं । जहाँ कहीं कोई प्रतिभाशाली अभिमानी सूफी उत्पन्न हुआ कि उसका नया सिलसिला चल पड़ा । यदि वह शांत प्रकृति का हुआ और उसने अपने जीवन में अपने को अन्य सिल- सिलो से अलग न कर लिया तो उसके शिष्यों ने अगली पीढ़ी में उसे अवश्य ही अन्यों से अलग कर लिया और एक नए सम्प्रदाय को जन्म दिया। देश-काल का भी सिलसिलों पर पूरा प्रभाव पड़ा। किसी भी सूफी सिलसिले पर विचार करते समय यह न भूल जाना चाहिए कि उसका आदि-पुरुष अथवा सूत्रधार वास्तव में रसूल, बकर, उमर, उसमान, अली किंवा कोई अन्य रसूल का प्रतिष्ठित साथी ही माना जाता है। इन महानु- भावा के नामोल्लख का प्रधान कारण तो यह है कि मुसलिम उनके उल्लेख के बिना किसी शुभ कर्म या सिलसिले का श्रीगणेश कर ही नहीं सकता। उसका मजहब इसके लिये उसे मजबूर करता है। अन्तु, सूफियों की इस मनोवृत्ति का मुख्य कारण एक अोर तो इसलामी दवाव और दूसरी ओर उनकी अगाध श्रद्धा है। साधारण मुसलमान भी इस चेष्टा में लगा रहता है कि वह किसी खलीफा या रसूल के साथी का वंशज मान लिया जाय । परन्तु तथ्य यह है कि सूफियों के भिन्न भिन्न खानदानों का सीधा संबंध उक्त महानुभावों से कुछ भी नहीं है। उनका प्रवर्तक या प्राचार्य वास्तव में कोई पीर या मुरशिद ही है। रसूल और उनके साथियों को तो इसलाम के प्रचार से ही फुरसत न मिली, वे अलग अलग अपने अपने सिलसिले कहाँ से चलाते? हुज्वेरी ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक' 'कश्फुल् महजुर' में सूफियों के बारह सिलसिलों का वर्णन किया है जिनमें केवल दो गैर-इसलामी हैं। इसलामी सिल- सिलों में सर्व प्रथम समय की दृष्टि से मुहासिबी संप्रदाय माना जाता है। उसके अनंतर क्रमशः हकीमी, तैफूरी, कस्सारी, खर्राजी, सहली, नूरी, जुनैदी खफीफी (१) इसलाम इन इंडिया, पृ० २ ।