पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/२३४

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परिशिष्ट थे। सिना, किंदी, अरबी सभी तो सूफी थे । गजाली और फाराबी भी तो तसव्वुफ के संस्थापक थे ! तसव्वुफ का प्रभाव मुसलिम द्रष्टाओं पर इतना व्यापक और गहरा पड़ा कि अरस्तू का रूप भी इसलाम में जाकर कुछ और ही हो गया और उसमें भी तसन्युफ का यहाँ तक बोलबाला हो गया कि बाद के मसीही पंडितों को उसको और स्पष्ट करने में पूरा श्रम करना पड़ा। सूफियों के विरोध में जो मुसलिम मनीषी आगे आए उनका या तो दर्शन से कुछ संबंध ही नहीं था या कुरान और हदीस के कोरे पंडित और निरे मुल्ला थे। उनमें से भी जिनमें कुछ स्वतंत्र जिज्ञासा और छानबीन की समझ थी वे अंशतः सूफी अवश्य हो गये। विवेक और मजहब का पक्का पावंद मुसलिम,सूफी के अतिरिक्त और कुछ हो ही नहीं सकता। गजाली से उत्तम प्रमाण इसका और कौन हो सकता है ? वह इसलाम का इमाम और तसव्वुफ का आरिफ है। व्युफ के विषय में उसका कहना है कि जो तैरना सीख चुका हो वह प्रेम सागर में उतर पड़े नहीं तो किनारे पर धीरे से नियमा- नुकूल गोता लगाए । यदि वह ऐसा न करेगा तो उसका विनाश हो जायगा : वह खिसक कर डूब जायगा । उसके मजहबी जीवन के लिये तो कुरान और हदीस ही पर्याप्त हैं। यह तो हमने देख लिया कि इसलाम में दर्शन का जो कुछ थोड़ा-बहुत प्रचार हुआ उसका अधिकांश श्रेय सूफियों को ही है। अब हमें यह भी देख लेना चाहिए कि तसव्वुफ का प्रभाव मुसलिम साहित्य पर क्या पड़ा। इसमें तो किसी भी अभिज्ञ को आपत्ति नहीं हो सकती कि इसलामी साहित्य में दर्शन तसव्वुफ की राह से आया और सूफियों ने ही काव्य में दर्शन का सत्कार किया। नहीं तो सीधे सादे अार उग्र इसलाम में उसको जगह कहाँ थी ? अरब मरना-मारना, जी लेना-जी देना खूब जानते थे, प्रमदाओं से प्रेम भी डटकर करते थे, संग्राम में शाइरों की ललकार भी गूंज उठती थी, पर वे किसी बात पर टिक कर विचार नहीं कर पाते थे। वे प्रत्यक्ष-प्रिय और स्पष्ट थे। किसी विचार में डूब जाना वे नहीं जानते थे। . .-.- (१) दी हिस्टरो भाव फिलासको इन इसलाम, पृ० १६५ ।