पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/२३८

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परिशिष्ट १ ३२१ अलग प्रश्न है तो स्मरण रखना होगा कि पौलुस वा यूहन्ना क्या, किसी भी मसीही भक्त ने मरियम को रति का आलंबन नहीं बनाया, हाँ विक्टोरिनस' ने प्रतीक के अधार पर अवश्य ही मरियम तथा पवित्र आत्मा को एक करने का प्रयत्न किया । परंतु मसीही संघ ने उसको स्वीकार नहीं किया। मसीही इतिहास में इस बात का प्रमाण नहीं मिलता कि मध्यकाल में कुमारी मरियम किस प्रकार आलंबन बन गई। मसीह भी पहले केवल संस्था के दुलहा माने जाते थे, व्यक्ति विशेष के सो भी नहीं । श्री लूया ने भी इन आलंबनों के इतिहास पर विशेष ध्यान नहीं दिया । उनको तो बस यह सिद्ध करना था कि भत्तों की प्रेम-भावना भी प्रेम की सामान्य भाव-भूमि पर ही प्रतिष्ठित होती है कुछ किसी अलौकिक दिव्य रति-भूमि पर नहीं । अस्तु, विज्ञान की दृष्टि और मानस-प्रशास्त्र के विचार से वह भी सामान्य रति के ही अंतर्गत है : उसकी कोई अलग अनोखी स्वतंत्र सत्ता नहीं । सो, आलंबन की अलौकिकता के विषय में हम जानते ही हैं कि अंतरायों के कारण सामान्य रति को ही परम रति की पदवी प्राप्त होती है । इधर श्री लूया' भी यही कहते हैं कि जिन प्राणियों की काम-वासना किसी कारण-विशेष-वश अतृप्त रह जाती है वे ही उसकी तृप्ति के लिये मसीह या मरियम को लंबन बनाते और उनसे भीतर ही भीतर प्रणय या संभोग चाहते हैं । तो मध्यकाल में यूरोप में भी ऐसे व्यक्तियों की कमी तो न थी ? जनसामान्य की बात जाने दीजिए, शिष्ट समाज में भी प्रेम- कचहरियों की कमी न थी। मसीही संत भी काम-वासना और भोग-विलास में इतने मग्न हो रहे थे कि मठों की पवित्रता थिर रखने के लिये उन पर कठोर शासन करना पड़ता था। उस समय एक ओर तो मसीह के सच्चे संत विरति को महत्त्व दे रहे थे और दूसरी और उनके संघ में व्यभिचार बढ़ता जा रहा था। इधर चारों ओर सूफी प्रेम-पीर का प्रचार कर रहे थे । ऐसी परिस्थिति में मसीही- (१) क्रिस्चियन मिस्टीसीपम, पृ० १२७ । (२) दी साहकालोजी श्राव रेलिजस मिस्टीसीपम, पृ० २६७ । (३) ए शार्ट हिस्टरी भाव वीमेन, पृ० २४२ ।