पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/२४

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उद्भव संतोष नहीं होता-मुख-संतोप के अभाव का प्रधान कारण भविष्य का भय है। प्राणी यदि मुखी रहे और मरण के भय से बच भी जाय तो उसे किसी परमेश्वर की भी श्रावश्यकता न पड़े, किसी अन्य देवी-देवता की तो बात ही क्या ? आत्म-रक्षा के लिए मनुष्य ने न जाने किसकी किसकी उपासना की, पर उसे सुख-संतोष कहीं नहीं मिला। अंत में शिथिल हो उसने किसी परमेश्वर की शरण ली और उसके प्रसाद एवं संयोग के लिए तड़पना प्रारंभ किया । उसने दिव्य दृष्टि से देख लिया कि वास्तव में उसके अतिरिक्त इरा प्रपंच में और कुछ भी नहीं है। यही सब कुछ है और सब कुछ उसी का रूप है। अद्वैत की इस भावना से वह आगे न बढ़ सका । उसके परमेश्वर भी उसी में लीन हो गए और वह ब्रह्म बन गया-अमृत और धानंद हो गया । अमृत एवं आनंद की कामना से मनुष्य अन्य प्राणियों से आगे बढ़ा । उसने देखा कि रति, प्रजाति और आनंद का विधान स्त्री-पुरुष के सहज संबंध में निहित है। आरंभ में शायद उसको इस बात का पता न था कि जनन सृष्टि की एक सामान्य किया है। अपनी शक्ति की कमी का अनुभव कर उसकी पूर्ति के लिए मानव ने किसी अलौकिक शक्ति का पता लगा लिया था। उसने मान लिया था कि संतान का उदय किसी देवता का प्रसाद हैं। संतानों के मंगल के लिए उसने उचित समझा कि सर्वप्रथम संतान को उस देवता को चढ़ा दे जिसकी कृपा से उसे सुख और संतोष मिलता है और जिसके कोप से सर्वनाश हो जाता है। मानव ने देखा कि स्त्री-पुरुष के सहज संबंध में जो सुख मिलता है उसकी कामना उसके देवता को भी अवश्य होगी। यदि उसके देवता को उसकी लालसा न होती तो वह उसके सुख में दुःख उपस्थित कर किसी प्राणी को उसके बीच से उठा क्यो ले जाता और निधन के अनंतर भी स्वप्न में उन प्राणियों का दर्शन उसे क्यों होता । अतः उसने उचित समझा कि प्रथम संतान को अपने देवता पर चढ़ा दे और उसके आनंद के लिए उसका विवाह भी उसी संतान से कर दे। (१) प्रथम प्रसव को किसी देवता पर चढ़ाने की प्रथा अजीब नहीं। भारत में भी इस प्रथा का पता चलता है। भवानी को संतान का चढ़ाना यद्यपि गाली सा हो गया