पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/२४८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

परिशिष्ट । २३१ चीन आदि भूखंडों में हो रहा था उसका उम्मी रसूल के मूल इसलाम से नाम मात्र का नाता था। उधर सूफियों के प्रेम तथा अपनी उदात्त बृतियों की प्रेरणा से चीन के उदार शासक मुसलमानों को मसजिद बनवाने की केवल अनुमति ही नहीं देते थे, अपितु स्वयं भी अपनी प्रिय मुसलिम प्रजा के मंगल के लिये उसे बनवा भी देते थे। परन्तु इसलाम के कर्मठ उपासकों की चालों से जब चीनी परिचित हो गए तब सूफियों के मार्ग में भी कुछ बाधा पड़ने लगी और मुसलिम जनता ने भी विवश हो बहुत कुछ चीनी संस्कृति और सभ्यता का स्वागत किया । चीनी संख्या और बल में कुछ कम न थे जो मुसलिम सहसा उन्हें दबा लेते । निदान, उन्हें चीनियों की शरण में रहना पड़ा। उन पर चीनियों का पूरा प्रभाव पड़ा, किंतु वे स्वतः चीनियों को प्रभावित न कर सके । जो इसलाम चीन में रहा वह तसव्वुफ के रूप में ही रहा और फलतः कहर इसलाम से बहुत कुछ दूर भी रहा । जापान पर तो उसका असर एक प्रकार से कुछ भी न हुआ । पर जावा, सुमात्रा आदि द्वीपों पर इसलाम का शासन हो गया और सूफियों तथा ताजिरों के साथ मुसलिम संस्कार भी उनमें फैल गए। किंतु मुसलमान हो जाने पर भी उनमें प्राचीन संस्कारों तथा श्राचार-विचारों की ही प्रधानता रही और इसलाम कबूल करने पर भी वे हिंदू-मत के ही अधिक समीपी सिद्ध हुए। वास्तव में उनके मत को इसलाम नहीं, तसव्वुफ कहना चाहिए । वे पीर परस्ती और मुरीदी के पक्के भक्त हैं और सभी मुहम्मद साहब को खुदा का महबूब मानते हैं। इस प्रकार अरब के उम्मी रसूल का एकदेशी मत विश्वव्यापक बन गया और संसार के सभी मत उसके संसर्ग में आ गए। सूफियों के शील-स्वभाव तथा प्रेम को देखकर अन्य मतावलंबी उसके प्रति उदार हुए । शामी मतों में मूसा का मत सबसे पुराना था । यहोवा के उपासकों ने प्रेम को खदेड़ दिया था । यहूदी मादन- भाव से चिढ़ते थे। उनमें संकीर्णता, कठोरता और कर्मकांडों को प्रधानता थी। किन्तु जिस भाव को शामी भक्तों ने परमेश्वर की प्रसन्नता के लिये उखाड़ फेंका था वही कालांतर में तसब्युफ के रूप में पनपा। उसका रूप इतना रम्य था, उसको (१) इसलाम इन चाइना, पृ. ९७-८ ।