पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/२५

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८ तसव्वुफ अथवा सूफीमत इतना तो स्पष्ट ही है कि विवाह से रति की बाढ़ सीमित हो जाती है। प्रणय का अर्थ प्रेम नहीं, रति की मर्यादा को स्थिर करना है। प्रणय की प्रतिष्ठा हो जाने पर रति का क्षेत्र निर्धारित हो जाता है। रति के क्षेत्र के निर्धारित हो जाने से प्रेम का परिमार्जन प्रारंभ होता है। परिमार्जन से प्रेम को परम प्रेम की पदवी प्राप्त होती है। यदि यह ठीक है तो समर्पित संतान की कामवासना के परिमार्जन में ही सूफियों का परम प्रेम छिपा है । उपनिषदों में स्पष्ट कहा गया है कि प्रजाति और आनंद का एकायन उपस्थ है। परम पुरुष ने रमणे की कामना से द्विधा फिर बहुधा रूप धारण किया । रमण के लिए हो रमणी का सृजन हुआ। ऋषियों ने देखा कि उपस्थ में प्रजाति और रति का विधान तो है पर उसमै अमृत और शाश्वत आनंद कहाँ है ? संतान भी मर्त्य होती है और आनंद भी क्षणिक होता है। अस्तु, सहजानंद में तो शाश्वत श्रानंद नहीं मिल सकता । शाश्वत आनंद तो तभी उपलब्ध हो सकता है जब सहजानंद के उपासक भी सहज रति का आलंबन किसी शाश्वत सत्ता को बना लें। भारत में परमात्मा के साकार स्वरूप को खड़ा कर जिस माधुर्य-भाव का प्रचार किया गया उसी का प्रसार शामी जातियों में निराकार का आलंबन ले मादन. भाव के रूप में हुआ। है तथापि प्रथम फल को लोग स्वयं नही खाते, किसी संत फकीर को दे देते हैं । दक्षिण में देवदासियाँ अभी मिलती है और बहुत से लोग आज भी दिखाई पड़ते है जिनको उनके माता-पिता ने किसी साधु को दे दिया और फिर बड़ा होने पर उससे मोल लिया या उसे साधु हो जाने दिया। प्रणय की भी कुछ वही दशा है। कृप एवं वापी तक का विवाह करा देते है। शामी जातियों में विशेषता यह थी कि उनकी समर्पित संतान परस्पर देव- रूपमें संभोग करना साधु समझती थीं, उसको प्रतीक के रूप में ग्रहण नहीं करती थीं। (१) बृ० श्रा० २ अ० ४ बा० ११, बृ० आ० ४ ० ५ ब्रा० १४, भृगुवल्ली ० अ० ३, कौ० ब्रा० उ०१० म०७ । (२) वृ० श्रा० प्र.अ.च.व. ३ ।