पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/२५८

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परिशिष्ट २ सिकंदरिया के नवअफलातूनीमत के संबंध में निवेदन है कि वह स्वतः भारल का ऋणी है। उसके पहले भी अकलातून, पैथोगोरग श्रादि अनेक यूनानी मनीषी भारत को विचार-धारा से अभिषिक्त हो चुके थे। भारत के संपर्क में आ जाने से यूनानी दर्शन में जो परिवर्तन हुए उनके निदर्शन की आवश्यकता नहीं । दर्शन- शास्त्र के अनेक मर्मज्ञों ने मुक्तकंठ से इसे स्वीकार किया है। अशोक ने सद्धर्म- प्रचार का जो प्रबंध किया था वह निष्फल नहीं गया। शाहबाजगढी के शिलालेख में इस धर्म-विजय का स्पष्ट उल्लेख है। भड़ौच के एक योगी ने पाथेस में तुषाग्नि में प्रागा-विसर्जन किया था। भागवतधर्म की उपासना भी यूनानियों में प्रचलित हो चली थी । संक्षेप में, उस समय भारत की विचारधारा का सर्वत्र स्वागत हो रहा था और यवन तथा रोमक सभी उसमें निमग्न थे। लोटीनस तो तृष्णा-क्ष्य के लिये ईरान तक आया ही था। भारतीय दर्शन के आधार पर ही उसने अफलातून के प्रेम तथा पंथ को पुष्ट किया। बस, भारत के संसर्ग से यूनान में जो दार्शनिक लहर उठी, सिकन्द- रिया में जो जिज्ञासा जगी, उसके प्रवाह से शामी मता ने चिंतन की प्रतिष्ठा हो गई और सूफियों ने ल्पोटिनस को 'शेख अकबर' की उपाधि दी। विचार करने की बात है कि मुसलिम मीमांसकों ने फिलासफी को यूनान का प्रसाद माना है पर कहीं तसव्वुफ को यूनान की देन नहीं कहा है बल्कि उसे हिन्दू-मत के रूप में वक्र-दृष्टि से देखा है और इसी नाते उसकी भर्त्सना भी की है। हों, तसब्बुफ शब्द में ग्रीक 'सोफ' कहा जाता है पर वह सबको मान्य नहीं। तसव्वुफ पर भारतीय प्रभाव के खंडन में प्रायः सीरिया का नाम लिया जाता (१) एन आइडियलिस्ट न्यू श्राव लाइफ, पृ० १३० । (२) "यह धर्मविभय देवताओं के प्रिय (अशोध मे ) यहाँ ( अपने राज्य ) तथा ६ सौ योजन दूर पड़ोसी राज्यों में प्राप्त को है जहाँ प्रतियोक नामक यवन-राजा राज्य करता है।" (३) अली हिस्टरी श्राव दी वैव सेक्ट, पृ० ५७ । जे. रो० ए० सो०, १९०४ ई०, पृ० ५० । (५) एलिटेरेरो हिस्टरी आव पशिया, पृ० ४२० ।