पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/२६६

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परिशिष्ट २ वह बगदाद से भारत आया और यहीं सात वर्ष तक सत्संग करता रहा । भारत से लौटने पर फिर वह बगदाद गया और सन् ६०८ से सन् ६११ तक वहीं बना रहा । सन् ६११ में फिर मका गया और अंत में दमिश्क को अपना घर बना लिया । अस्तु, इस भ्रमण तथा सत्संग में जो भारतीय भाव हाथ लगे उन्हीं की प्रेरणा से उसने तसव्वुफ में 'वहदतुलवजूद' का प्रतिपादन किया और सिद्ध सूफियों में अद्वैतवादी ख्यात हुआ। यदि उमने एक योगी की सहायता से अमृतकुंड के अनुवाद का संशोधन किया तो निश्चय ही वह भारतीय-भावों का भक्त और ज्ञाता था। उस पर भारत का प्रकट प्रभाव है, और है वह अपने प्रौढ़ विचारों के लिये भारत का सवथा ऋणी। अरबी के अद्वैतवाद से व्याकुल हो जिली ने भारत का भ्रमण किया और शायद काशी में कुछ दिनों तक रहा भी। जो हो, जिली ने अरबी के पक्ष का खंडन बहुत कुछ उसी ढंग पर किया जिस ढंग पर रामानुज से शंकर के पक्ष का किया था। तसव्वुफ में उसने 'इसानुल कामिल' की प्रतिष्ठा की और मुहम्मद साहब को 'इंसा- नुल कामिल' सिद्ध किया। कहना न होगा कि यह 'इसानुल कामिल' हमारे यहाँ के 'पुरुषोत्तम' अथवा 'पूर्ण पुरुष' की इसलामी प्रतिध्वनि है और इस बात को स्पष्ट घोषणा है कि तसन्युफ भारत का पका ऋणी है। जिली के उपरांत भारत तसव्वुफ का भत्ती बन गया और न जाने कितने सूफी अपना देश छोड़ भारत में आ बसे । उनके संबंध में कुछ निवेदन करना व्यर्थ है । भारत आज भी सूफियों का प्रधान आश्रय है। हिन्द के मुसलमान कितने दिनों से 'हज' के द्वारा इसलाम में भारतीय भावों का प्रसार कर रहे हैं इसे कौन नहीं जानता है फिर भी पश्चिम के पंडित न जाने कैसा 'इतिहास' पढ़ते हैं जो प्रारंभ के सुफियों पर भारत का प्रभाव नहीं मानते। नहीं, उन्हें उस 'खूनी' इतिहास को भुला कर भारत के प्रेम-प्रसार पर ध्यान देना चाहिए और फिर मुहं खोल कर प्रकट कहना चाहिए कि वास्तव में हमारा मत क्या है। (१) स्टडीज इन इसलामिक भिस्टीसीज्म, पृ० ८१ ।