पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/३६

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२. विकास गत प्रकरण में हमने देख लिया कि सेनानी यहोवा के साहसी सिपाही, नबियों के उल्लास के विरोध में किस तत्परता से काम कर रहे थे। बात यह है कि यहोवा एक विदेशी देवता था। उसकी कृपा न जाने क्यों इसराएल-कुल पर इतनी हो गई कि उसने मूसा द्वारा उसका उद्धार किया। कहा जाता है कि इसराएल का अर्थ ही होता है कि देवता युद्ध करता है । यहोवा रणक्षेत्र में स्वयं प्रतीक के रूप में विराजता और सेना का संचालन करना था। जिस संपुट में उसका प्रतीक होता था उसको किसी अन्य भूमि पर रख देना उचित नहीं समझा जाता था। एलीशा (मृ. ७८१ पू.) को उसके संपुट की संस्थापना के लिये मिट्टी लादकर रण- क्षेत्र में ले जानी पड़ी थी। कहने की आवश्यकता नहीं कि यहोवा के उपासकों की. इस संकीर्णता और कठोरता में मादन-भाव का निर्वाह न था। परन्तु भावों एवं मतों के इतिहास से स्पष्ट अवगत होता है कि किसी भी भाव अथवा मत का विनाश नहीं होता ; अधिक से अधिक उनका तिरोभाव हो जाता है -अवसर पाने पर उनमें फिर बहार आती है और उनकी सुरभि से सिक्त हो संसार फिर उन्हीं का. गीत गाता है । मादन-भाव के विकास में भी यही बात है। यहोवा के कट्टर कर्म- कांडी मादन-भाव के विरोध में जी-जान से मर मिटे, पर उसमें 'बाल' श्रादि देवी- देवताओं के गुणों का आरोप हो ही गया। जो स्त्रियाँ अन्य जातियों से इसराएल-घरों में आती थीं उनके देवता भी उनके साथ लगे आते थे। घोर विरोध करने से किसी प्रकार अन्य देवों का बहिष्कार तो हो गया, पर साथ ही साथ यहोवा में उनके गुणों का आरोप भी हो गया। परिणाम यह हुआ कि उसकी (१) राजाओं की दूसरी पुस्तक, ५.१७ । २) सराएल प.४.५ xon!