पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/५२

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विकास ३५ परिचित थे। मुहम्मद साहब को धर्म-जिज्ञासा में उसका पता चला। फलतः उसके उपार्जन में वे लीन हुए। यद्यपि अभीष्ट भावावेश में उनके विचार तथा शब्द व्यक्त होते थे तथापि उनके दैवी होने में संदेह नहीं । मुहम्मद साहब के जीवन का जो परिचय दिया गया है उससे स्पष्ट है कि मुहम्मद साहब के भक्त होने में कुछ संदेह नहीं । वणिक-ऋत्ति से मुहम्मद साहब ने जो कुछ ज्ञान अर्जित किया, 'हेरा' की गुहा में एकांत भाव से उसी का परिमार्जन कर अल्लाह की प्रेरणा से उसके प्रचार पर ध्यान दिया । मुहम्मद साहब का शेष जीवन एक भक्त सेनानी का जीवन हो गया । आप संचालक और संस्थापक बन गए। अल्लाह का आदेश अब व्यवस्था का काम करने लगा। मुहम्मद साहब अब अल्लाह से कहीं अधिक उसके संदेश की चिंता करने लगे। उनको किसी प्रकार अल्लाह की एकता और अपनी दूतता का प्रचार करना आवश्यक जान पड़ा। उन्होंने 'ईमान और 'दीन' से कहीं अधिक 'इसलाम' पर जोर दिया। यही कारण है कि लोग उनको सन्चा सूफी नहीं समझते और केवल एक कुशल नीतिज्ञ मानते हैं। स्वयं सूफियों का कहना है कि मुहम्मद साहब ने स्वतः गुह्यता के कारण सूफीमत का प्रचार नहीं किया। उसकी दीक्षा अली या किसी अन्य साथी को कृपा कर दे दी। सूफी इस अधिकार-भेद से पूरा लाभ उठाते और इसे अपने मत का दुर्ग समझते हैं। मुहम्मद साहब के संबंध में अब तक जो कुछ निवेदन किया गया उसका निष्कर्ष यह है कि मुहम्मद साहब वास्तव में सूफी नहीं थे। उनमें दार्शनिक संतों की क्षमता नहीं थी। उनकी भक्ति-भावना को देखकर हम उन्हें अभ्यासी कर्मशील भक्त कह सकते हैं। उनकी भक्ति भावना में दास्य भाव की प्रधानता है, माधुर्य या मादन-भावं का आभाद नहीं। मुहम्मद साहब आमोद-प्रिय जीव थे। प्रमदा पर उनकी विशेष ममता थी, फिर भी उनको स्त्री-पुरुष के सहज-संबंध में किसी सनातन सत्ता का संकेत नहीं मिलता था। अल्लाह के वे एक प्रपन्न सेवक थे, विरही या संभोगी कदापि नहीं। उनमें 'हाल' था, 'इलहाम' था, करामत थी, वासना थी

(१) आइडिया आव पर्सनालिटी इन सूफीज्म, पृ० १ ।