तसव्वुफ अथवा सूफीमत थी, जो न जाने कितने दिनों से अरब के पथिकों को गुमराह होने से बचाती, भटकते को मार्ग दिखाती और त्यागी यतियों की पर्णकुटी की शोभा बढ़ाती थी । अल्लाह की व्यक्तिगत सत्ता का स्वर्गस्थ विधान संग्राम में सहायक तो था किंतु दलित हृदयों का उद्धार, उनका परितः परिमार्जन, उसका सामीप्य ही कर सकता था। यदि कुरान के अवतरण का विधान-अल्लाह, जिबरील, मुहम्मद, जनता-बना रहता तो सूफी महामिलन का स्वप्न न देख पाते । सूफियों को तो प्रियतम के गले का हार भी दुःखद था, फिर भला के किसी मध्यस्थ को कब तक मह सकते थे।' निदान उनको अपने मत के प्रतिपादन के लिये कुरान के पदों का अभीट अर्थ लगा मुहम्मद साहब को 'महवृव' और 'नूर' बनाना पड़ा । मुहम्मद साहब के सत्कार से उनके बहुत से अंतराय दूर हुए और सूफी इसलामी जामे में अपने मत का प्रचार करने लगे। धीरे धीरे इसलाम में उनको शाश्वत पद मिल गया और तसव्वुफ इसलाम का दर्शन हो गया। इसलाम की दीक्षा में यदि अल्लाह अनन्य है तो मुहम्मद उसका दूत । मुहम्मद साहब का नाम जो अल्लाह के साथ कलमा में जुट गया तो इसलाम उससे क्रूर और संकीण हो गया । बेचारे सूफियों को भी इसलाम की रक्षा के लिये मुहम्मद साहब को बहुत कुछ सिद्ध करना पड़ा । मुसलिम संसार में अल्लाह और कुरान के अनंतर मुहम्मद और हदीस का स्थान है । वास्तव में मुहम्मद साहब ने जो कुछ (१) "खुदा उस वक्त (कयामत के दिन) कहेगा... मुहम्मद ! जिनको तुमने पेश किया वे तुम्हें जानते हैं, मुझे नहीं जानते । ये लोग (सी) मुझे जानते हैं, तुम्हें नही जानते" | जायसी-ग्रथावली, भूमिका, पृ० १६८ । (२) इसलाम का वास्तव में कोई निजी दर्शन नहीं है। शामी मतों में आसमानी किताबों पर इतना जोर दिया गया कि उनमें दर्शन के लिये जगह न रही और बुद्धि पाप की जननी मानी गई। पर आर्थों के प्रभाव से इसलाम में चिंतन का श्रारंभ गया । मुसलिम 'फिलासफी' को यूनान का प्रसाद समझते हैं। तसव्वुफ से ही मुसलिम मनीषियों को संतोष हुआ और उसी में इसलाम की रक्षा भी दिखाई पड़ी।