पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/५७

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४० तसव्वुफ अथवा सूफीमत अरबों के उत्थान में मग्न थे । अरबों के लिये अरबी में कुरान उतर रही थी। किंतु उनके अनुयायियों ने उनके भावों पर ध्यान नहीं दिया। उनके सामने सेनानी मुहम्मद का वह रूप नाच रहा था जो इसलाम के प्रसार के लिये संग्राम में निरत था, संहार में मन्न था, संग्रह में लगा था, ध्वंस और बाबा को येय समझता था। चट उन्होंने उसी का तांडव प्रारंभ किया। मुहम्मद के एकदेशीय संदेश को, अरबी कुरान और अरबी दीक्षा के आधार पर विश्वव्यापक बनाने की उग्र चेष्टा आरंभ हुई। भाग्यवश उमर (मु. ७०० ) सरीखा पटु, विचक्षण, त्यागी, कुशल, वीर नीतिज्ञ मिला । उमर की छत्रछाया में इसलाम को जो गौरव मिला था वह सहसा नष्ट हो गया। उसमान उसकी रक्षा न कर सकें। उमर के प्रभुत्व से मिन तथा ईरान जैसे सभ्य और संपन्न देश इसलाम के शासन में आ गए। शाम भो अछूता न बचा। इसलाम को सँभलकर काम करना पड़ा। इसलाम विकट परिस्थिति में पड़ गया। एक ओर तो जो लोग स्वर्ग के लोभ अथवा स्वर्ण की लालसा से लड़ रहे थे उन्हें संभोग की वासना सताने लगी, दूसरी ओर जो भद्र मुसलिम बन गए थे उनकी प्रतिभा इसलाम का मर्म समझना चाहती थी। बुद्धि विभेद की जननी और विज्ञान की माता है। लोभवश इसलाम में अरब और अरबेतर का प्रश्न उठा। शासन और साम्राज्य के लिये मुसलिम आपस में भिड़ गए। मुहम्मद साहब ने इसलाम पर विशेष जोर दिया था, पर ईमान और दीन के संबंध में प्रायः वे मौन ही रह गए थे। कम से कम कुरान में इनका निरूपण नहीं किया गया था। इसलाम को यहूदी, मसीही, पारसी आदि अनेक मतों को पचाना था। उसमें धर्म-जिज्ञासा उत्पन्न हुई। इसलाम के सामने जो प्रश्न आर उनका समन्वय वह न कर सका। ईरान को जीतकर इसलाम स्वयं ईरानी बनने लग। अरब मुहम्मद साहब को अरब नेता मानकर उनके संघ में शामिल हो गए थे और उनकी सफलता और प्रतिभा के कारण उनको रसूल भी मान बैठे थे, पर ईरानियों की भाँति मुहम्मद A. (१) सुरा १२. २, १३. ३७, ३९. २९, ४१, २ । (२)दी मुसलिम क्रीड, पृ. ३ ॥